सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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सोमवार, 25 अप्रैल 2011

अस्त हुआ उत्तर छायावाद का सूरज

अब फिजां में गूंजेंगे 'किसने बांसूरी बजाई'

सूबे की सांस्कृतिक राजधानी मुजफ्फरपुर को साहित्यिक ऊर्जा प्रदान करने वाला, साहित्य की नई पीढिय़ों को तराशकर पहचान दिलाने वाला और देश भर में उत्तर छायावाद के गढ़ के रूप में बहुचर्चित निराला निकेतन के हिस्से में अब केवल अफसाने ही शेष रहे गए हैं। क्योंकि महाकवि आर्चाय जानकी वल्लभ शास्त्री अपनी यादों के सहारे हमें छोड़कर बहुत दूर चले गए हैं। हवा जब-जब निराला निकेतन की माटी को छूकर खुशबू बिखेरती हुई इठलाएगी, तब-तब आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री की कही बातें, चेहरे के भाव, गीत और कविताएं हमारे बीच उनके जिंदा होने का एहसास दिलाती रहेंगी।कोई भी शहर, राज्य या देश वहां रहने वाले लोगों के होने से होता है। लेकिन इस शहर में आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के होने का एक गंभीर मतलब था। सच-सच कहा जाए तो यह शहर उनसे था। उनके कारण जाना-पहचाना जाता रहा है। यहां की साहित्यिक लीची की मिठास अगर दूर देश के लोगों को भाती थी तो नि:संदेह आचार्य श्री के कारण। इस शहर ने भले ही उन्हें बहुत कुछ नहीं दिया हो, पर वे अपनी साहित्यिक पीढिय़ों के लिए बहुत कुछ छोड़ गए हैं। उनके संस्कारों में पल-बढ़ कर जवान हुआ यह शहर शायद ही कभी उन्हें भूल पाएगा।एक ऐसा भी दौर रहा है जब आचार्य श्री की साहित्यिक गतिविधियां न सिर्फ फलक पर थीं, बल्कि महाप्राण निराला, पृथ्वीराज कपूर, उदय शंकर भट्ट, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेद्वी, आचार्य त्रिलोचन शास्त्री, कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी, क्रांतिकारी कवि रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन, आचार्य महाशंकर मिश्र, आचार्य जयकिशोर नारायण सिंह व नवगीत प्रवर्तक राजेन्द्र प्रसाद सिंह सरीखे दर्जनों कवि-साहित्यकार निराला निकेतन का आतिथ्य स्वीकार कर गर्व करते थे। इतना नहीं नहीं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, स्व। चंद्रशेखर, उप राष्ट्रपति रहे स्व। भैरो सिंह शेखावत और सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. कर्पूरी ठाकुर भी निराला निकेतन में दस्तक दे चुके हैं। ये नेता कितने दीवाने थे। इसकी बानगी आचार्य श्री सुनाया करते थे। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने स्व. कर्पूरी ठाकुर के बारे में बताया था- 'उन्होंने केवल एक, मेरी एक कविता सुनी, मोहित हो गए, भक्त हो गए वो। 'किसने बांसूरी बजाई' करके उस जमाने में एक गीत गाता था मैं। इस गीत को जब उन्होंने मेरे गले से सुना तो गला पसंद आ गया उनको। गला ही काट लिया मेरा। जिन्दगी भर के लिए उन्हीं का हो के रह गया मैं। उन्होंने ही मुझको प्रोफेसर बनाया पटना में। जो कुछ काम किया वहीं किया। बताइए कहां मैं ब्राह्मण और कहां वो ठाकुर। किसी के यहां खा-पी नहीं सकता था मैं। उसको निभाते हुए इतना माना। मैं कोई महापुरुष नहीं था। पर उनके साथ रहकर इतना जाना कि कवि की भी इज्जत होती है। कर्पूरी जी सारी जिन्दगी मुझे काफी मान-सम्मान देते रहे।' खैर, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री पर इस सांस्कृतिक राजधानी को हर समय नाज रहा है, अब भी नाज है और हमेशा रहेगा।

प्रस्‍तुति - एम. अखलाक

(यह खबर दैनिक जागरण में पेज वन पर बाटम छप चुकी है।)

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