सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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शुक्रवार, 19 मार्च 2010

यह ठीक नहीं हो रहा नर्मदा माई

नर्मदा माई,

प्रणाम।

12 मार्च को तुमसे मिलने घाट पर पहली बार आया था। तुमको लहराते देखकर बचपन याद आ गया। तब गांव की छठी मइया के पोखर में दादी के संग नहाने जाया करता था। दादी कहती थी- पहले इसमें कोई साबुन से नहीं नहाता था। इसी पानी से हमलोग दाल पकाते थे। खूब पीला॥ जल्दी गल जाता था, लेकिन दादी के मरने से पहले ही साला सब सत्यानाश हो गया। राजा-रजवाड़ों के साथ रिवाज भी॥। नर्मदा माई, तुम भी तो अब हमारी छठी माई के पोखर की तरह ही हो गई हो। अब इसी को देखो न! किस तरह रगड़-रगड़ कर साबुन से तुम्हें नाश रहा है। कहता है- आया हूं नर्मदा माई से मिलने, पूजा करने, आशीर्वाद लेने, लेकिन आंख वाले अंधे को सरकारी हिदायत भी दिखाई नहीं देती। देखकर भी अनजान बन जाता है। माई, तुम्हीं इन्हें समझाओ न, आखिर ये तुम्हारे ही तो बेटे हैं? या तुम चुपचाप यों ही खत्म हो जाना चाहती हो?

खैर, मैं तुम्हारी गोद में उतर आया। तैरने नहीं आता। सो, छाती भर पानी में खूब डुबकी लगाई। मन नहीं माना तो तुम्हारी छाती पर नाव के सहारे तैरते हुए प्राचीन शिव मंदिर तक चला गया। हां वही मंदिर, जो अब भी अपने वजूद को बचाये हुए है तुम्हारी तरह। हर आने-जाने वाले को महेश्वर शहर की गौरव गाथा सुनाना नहीं भूलता।

माई! मन भला कैसे मानता? दूसरे दिन फिर सुबह-सबेरे ही तुम्हारे चरणों में आ पहुंचा। नील गगन में लाली बिखेर रहा सूरज तुम्हारे माथे की बिंदिया लग रहा था। तुममें लीन साधु बाबा एकतारा की धुन पर कबीर के दोहे सुना रहे थे। पता है, तुमसे मिलने के लिए दूर-दूर से आई औरतें तो उनको बीच में ही रोक कर तुम्हारी वंदना गीत गाने लगतीं। उनकी आस्था देखकर मेरा मन भी तुम्हारे लिए पसीज गया। सो, मैं भी साधु बाबा और उन औरतों के गीत चाव से सुनता रहा, जो कुछ-कुछ समझ में आए। वह तुमसे कुछ कहना चाहती थीं। अपनी पीड़ा बांटना चाहती थीं।

जानती हो माई, दोपहर में मेधा ताई भी मिली थीं। कह रही थीं- कुछ लोग तुम्हारी छाती चीर कर बांध बना रहे हैं। जिससे बिजली बनायेंगे। बड़े-बड़ों का घर, कारखाना गुलजार होगा। फिर तुम्हारे अपने बेटे तुमसे बहुत दूर चले जाएंगे। उनके गांव भी उजड़ जायेंगे। कुछ नहीं बचेगा। तभी तो तुम्हारे बेटे तुम्हें बचाने के लिए लड़ भी रहे हैं। जेल जाते हैं, छूटकर आते हैं, फिर लड़ते हैं, बार-बार लड़ते हैं और समवेत स्वर में कहते हैं- लड़ेंगे, जीतेंगे। माई, उनका क्या होगा पता नहीं, पर बेटे लड़ रहे हैं। और लड़े भी क्यों नहीं? तुम्हीं से तो उनकी जिंदगी है। तुम्हारे पानी से ही तो उनके खेत साल में तीन-तीन बार सोना उगलते हैं।

लेकिन माई, एक बात तुम्हारे तट पर अच्छी नहीं लगी। तीसरे दिन जो कुछ मैंने अपनी आंखों देखा, कलेजा मुंह को आ गया! मेरी जगह कोई भी होता उसका भी यही हाल होता। रोली तो रो ही पड़ी। और रोए भी क्यों नहीं? आखिर कोई कैसे देख-सह सकता है किसी बेबस औरत पर अत्याचार? माई, यह सबकुछ हो रहा था सिर्फ आस्था के नाम पर। तुम्हारी दुहाई दे-देकर ही तो वे महिलाएं उस बेजान-सी औरत का भूत भगा रही थीं। तुम्हारा ही तो हवाला देकर उसके कष्टों को तुम्हारे आंचल में बहाने का नाटक कर रही थीं। माई, उस बेजान-सी औरत को जंजीरों से पीटने की इजाजत क्या सचमुच तुमने दे रखी थी? भला तुम ऐसा कैसे कर सकती हो? तुम इतना क्रूर कैसे हो सकती है? माई, तुम तो जीवनदायिनी हो। तुम तो हरेक की पीड़ा हर कर निर्झर बहते रहने का न्यौता देती हो। तुम्हें ही तो देखने-पूजने के लिए देवी अहिल्या बाई ने तुम्हारे तट पर अपना राज-पाट बसा लिया था। तुम तो उनके लिए भी प्रेरणादायिनी रही हो। फिर ऐसा क्यों है? तुम्हारे सामने कोई अबला क्यों प्रताडि़त होती है? कोई कुछ क्यों नहीं बोलता? ऐसे समय में तुम भी खामोश क्यों हो? माई, काश! तुम्हारी लहरें इस बदनुमा दाग को धो पातीं। तुम्हारी लहरें इस कलंक को बहा ले जातीं। काश! कोई स्त्री तुम्हारे तट पर आकर जंजीरों से नहीं पिटती। यहां आने वाली हर स्त्री तुम्हारा ही गुणगान करती। कितना अच्छा होता जो तुम उन्हें देवी अहिल्या बाई बनने के लिए प्रेरित करती।

माई, माफ करना, जो देखा सो लिख डाला। आखिर तुम्हारा ही तो बेटा हूं। तुमसे नहीं कहूंगा तो किससे कहने जाऊंगा? बहुत जल्द आ रहा हूं तुम्हारे पास। हां, मेधा ताई और तुम्हारे लड़वैए बेटों के साथ मुझे कदम से कदम भी तो मिलाना है, माई! उम्मीद करता हूं अबकी आऊंगा तो शायद कोई साबुन लगाते या कोई तुम्हारी छाती पर बांध बनाते या तुम्हारे तट पर कोई अबला स्त्री प्रताडि़त होती नहीं दिखेगी। हां, सुनाई देंगे तो सिर्फ कबीर के दोहे, तुम्हारे लिए मंगलाचरण गाती हुई औरतें और देवी अहिल्या बाई के त्याग के किस्से।

रिपोर्ट - एम. अखलाक