सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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शनिवार, 27 जून 2009

ताल ठोंककर कहते-चोरी का माल है

उनका वेश बिल्कुल साधारण होता है। पहली नजर में कोई उन्हें देहाती या फेरी वाले से ज्यादा नहीं समझ सकता। मगर, कंधे पर लटके उनके झोलों में चोरी का माल भरा होता है। एक से एक लुभाने वाला असली सामान। जी हां, ब्रांडेड कंपनियों के कपड़े, साडिय़ां, चादर, घड़ी, रेडियो, इलेक्ट्रानिक सामान आदि। इनकी कीमत तो सुनकर तो लोग ललचा ही जाते है। बाजार मूल्य से काफी कम यानी सौ का माल 40 में। कम कीमत का राज पूछने पर ताल ठोंककर मगर आहिस्ते से कहते है- चोरी का माल है बाबू, चोरी का, ले लीजिए, वर्ना ऐसा माल और इस कीमत पर कैसे मिलेगा। कहां से चोरी करते हो, पूछने पर कन्नी काट जाते है, लेकिन इतना जरूर कहते हैं कि हजार रुपये में भी नहीं मिलने वाले ये कपड़े, दो-चार सौ में दे रहा हूं, ले लीजिए।
मुजफ्फरपुर की किस गली में ये लोग कब और किस रोज दिखेंगे, यह कुछ तय नहीं होता, मगर जब भी ये जिस भी गली में दिखते है अकेले कभी नहीं होते। कम से कम दो की संख्या में धंधे को चलाने वालों में एक कैरियर की भूमिका में होता है। खासियत यह कि ये सामान खरीदने की ज्यादा जिच नहीं करते। आपने इनके सामान की खरीद में रुचि दिखायी तो रुके वर्ना तत्काल आगे बढ़ लेते है। गलियों में फेरे लगाकर चोरी का माल बेचने वालों में चावल और गेहूं की भी बिक्री की बात सामने आयी है। शुद्ध देहाती दिखने वाले तीन-चार लोग इकट्ठे गलियों में घूमते है और ग्र्रिल खटखटा कर चावल और गेहूं की खरीद की दरियाफ्त करते है। खुलेआम बताते है कि खांटी मंसूरी चावल छह सौ से सात सौ रुपये प्रति क्विंटल लेना है तो बोलिये। इन घुमक्कड़ों के पास माल नहीं होता। जब आप हामी भरते है तो इनमें से एक छिटक जायेगा और दस-पंद्रह मिनटों के बाद किसी साइकिल या कंधे पर बोरे को ढोकर आपके दरवाजे पर चावल डाल देगा। एक तौलता है, दूसरा पैसा लेता है, बाकी दो इधर-उधर की निगरानी करता है। चोरी का ही सही, ये अपना कारोबार करने में सफल है और सबकुछ खुलेआम अंजाम देकर सकुशल निकल जाते है।
जानकारों का कहना है कि शहर की आवासीय कालोनी वाली गलियों में फेरे लगाकर चोरी का माल बेचने वाले अधिकतर ट्रकों के ड्राइवर व खलासी होते है। अपने ट्रकों पर लदे माल को चोरी गया बताकर बाद में गलियों में घूमकर वे उसे बेच देते है। इन पर अंकुश लगाना सरल काम नहीं है। सूत्रों का यह भी कहना है कि ब्रांडेड कंपनियों का माल चुराने वाला आर्गनाइज्ड रैकेट है, जो बाद में कैरियर को उसे खपाने के लिए शहरों की गलियों में भेज देता है। ये चोरियां बड़े पैमाने पर और बड़े शहरों में अंजाम दी जाती है। सूत्र बताते है कि गलियों में फेरी लगाकर चोरी का माल बेचने वालों की सक्रियता फिलहाल मुजफ्फरपुर, दरभंगा, समस्तीपुर, मोतिहारी और धीरे-धीरे कालोनी के रूप में विकसित हो रहे उत्तर बिहार के शहरों में ज्यादा है। उधर, बात चाहे प्रमंडलीय मुख्यालय वाले शहरों मुजफ्फरपुर व दरभंगा की हो या समस्तीपुर व मोतिहारी की, कहीं भी इन चोरों पर अंकुश लगाने की कोई पुलिसिया कार्ययोजना सामने नहीं आयी है। पुलिस की नजरों से ओझल इनका धंधा बदस्तूर चल रहा है। बाजार पर नियंत्रण रखने वाले अफसर तो वैसे भी कहीं नजर नहीं आते। उनसे इस पर नियंत्रण की बात ही बेमानी है। रिपोर्ट :- प्रमोद मिश्र, मुजफ्फरपुर से

बुधवार, 10 जून 2009

खामोश यादों के सिवा दिल में रहा कुछ भी नहीं

हिन्दी फिल्मी गीतों में लोक धुनों का पुट डालने वाले शहर के सुप्रसिद्ध संगीतकार पं.मुनीन्द्र शुक्ल वर्तमान संगीतकारों के लिए गुमनाम हो गये। साठ से लेकर अस्सी के दशक तक कई हिन्दी फिल्मों में लोक संगीत की परंपरा कायम करने वाले श्री शुक्ल को संगीत में रची-बसी नई पीढ़ी नहीं जानती। वजह वर्तमान संगीत इस संगीतकार को रास नहीं आता। वर्ष 1964 से लेकर 1985 तक सी.रामचंद्रन एवं इकबाल कुरैशी जैसे मशहूर संगीतकारों के साथ गीतों के धुन में सहयोग कर इन्होंने लोक संगीत को समृद्धि दिलाई थी। इस दौरान 'काबुलीवाला', 'खिड़की', 'बरसात की रात', 'आदमी', 'चाणक्या', 'दिल ही तो है', 'लव इन शिमला', 'कव्वाली की रात एवं 'मेरे गरीब नवाज' जैसे कई फिल्मों के संगीत निर्माण में इनका योगदान संगीत निर्देशकों को काफी पसंद आया। हालांकि वर्ष 1964 में ही निर्माता प्यारेलाल संतोषी की दो फिल्मों 'कब होई गवनवा हमार' एवं 'फिर से फुलायल फुलवनमा' में संगीत निर्देशन कर इन्होंने भोजपुरी फिल्म संगीत के नये दौर की शुरूआत की। श्री शुक्ल के मधुर संगीत के कारण ही सुप्रसिद्ध पाश्र्वगायिका लता मंगेशकर, मो.रफी, मन्नाडे, आशा भोंसले, उषा मंगेशकर, सुमन कल्याणपुरकर एवं महेन्द्र कपूर ने भोजपुरी गीतों को अपना स्वर दिया। फिल्मों में आने से पहले श्री शुक्ल वर्ष 1951 से 1963 तक आकाशवाणी पटना के नियमित कलाकार के रूप में लोक कला को समृद्ध करते रहे हैं। इनके संगीत निर्देशन में वर्ष 1960 के गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्रपति भवन में बिहार की टीम ने प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था। श्री शुक्ल बताते हैं कि जब तक वे आकाशवाणी से जुड़े रहे तब तक बिहार का लोक संगीत निरंतर प्रयोग की कसौटी पर कसा जाता रहा। पदमविभूषण गायिका स्व.विन्ध्यवासिनी देवी के अनेक रेडियो कार्यक्रम में वे संगीत को सजाते रहे हैं। परंतु मुम्बई चले जाने के बाद उन्हें आकाशवाणी की नौकरी छोडऩी पड़ी। वे कहते हैं कि उस वक्त हिन्दी फिल्मों का दौर था। भोजपुरी फिल्म बहुत कम बना करती थी। उसके बावजूद राजकुमार संतोषी के पिता प्यारेलाल संतोषी ने मुझ पर भरोस कर दो फिल्मों का निर्माण किया था। वे दोनों फिल्में खूब चली भी थी। संगीत के संदर्भ में श्री शुक्ल कहते हैं कि बांसुरी से उन्हें काफी प्रेम रहा है। उनकी प्रारंभिक पहचान बांसुरीवादक के रूप में ही बनी थी। स्व.देवदत्त चित्रकार बांसुरीवादन के उनके प्रारंभिक गुरु थे। उसके बाद छह वर्ष तक इलाहाबाद के प्रयाग विश्वविद्यालय से बांसुरीवादन की शिक्षा ली। साथ ही उस्ताद अब्दुल गनी खां के निर्देशन में शास्त्रीय एवं लोक संगीत गायन भी सीखा। फिल्मों से दूर चले जाने के संदर्भ में श्री शुक्ल कहते हैं कि अचानक पत्नी के निधन के कारण उन्हें मुम्बई से वापस मुजफ्फरपुर आना पड़ा। इस दौरान कई फिल्मों के प्रस्ताव भी छोडऩे पड़े। फिर पारिवारिक जिम्मेवारी ने कभी जाने नहीं दिया। श्री शुक्ल कहते हैं कि संगीत से उनका प्रेम पहले की ही तरह है। वे अब भी घंटो रियाज कर अपनी साधना बरकरार रखे हुए हैं। रिपोर्ट : विनय, मुजफ्फरपुर से

गुरुवार, 4 जून 2009

दिन हवा हुए जब पसीना गुलाब था

पचास के दशक में हिन्दी सिनेमा में विशेष पहचान बनाने वाले शहर के प्रतिष्ठित फिल्मकार एवं नाटककार प्रभातचंद मिश्रा आज गुमनामी में है। कभी बम्बई में बिहार की पहचान दिलाने वाले 82 वर्षीय श्री मिश्रा अपने ही शहर में बीमारी और अकेलेपन से जूझ रहे हैं। दुखद बात यह है कि चतुर्भुज स्थान चौक के समीप रहने वाले इस बेहतरीन फिल्मकार शहर की नयी पीढ़ी को इस बेहतरीन फिल्मकार के बारे में नही जानते। कारण, कुछ लोगों ने भुला दिया तो बीमारी के कारण श्री मिश्रा भी फिल्म और नाटक से कटते चले गये। हालांकि वर्ष 1950 से 1955 के बीच बम्बई में सनराइज पिक्चर्स की तीन फिल्मों में उनके सह निर्देशक का काम देख बड़े फिल्मकारों ने उनकी पीठ ठोकी थी। उन फिल्मों में मीना कुमारी एवं भरतभूषण अभिनीत फिल्म दानापानी, वैजयंतीमाला एवं प्रेमनाथ अभिनीत अंजाम और संस्कार फिल्में उन दिनों काफी चर्चित रही थी। निर्माता वीएम व्यास श्री मिश्रा के सटीक हिन्दी और दमदार आवाज के कायल थे। उनके निर्देश पर संस्कार फिल्म के लिए श्री मिश्रा ने महीने भर वैजयंती माला को हिन्दी उच्चारण सिखायी थी। श्री मिश्रा कहते हैं कि उस दौरान उन्होंने कई फिल्मों में चरित्र अभिनेता की भूमिका भी निभाई। जिसमें परीक्षित साहनी एवं रेहाना सुल्तान की फिल्म सूर्यमुखी प्रमुख थी। उन्होंने इस फिल्म में रेहाना की पिता की भूमिका निभाई थी। श्री मिश्रा कहते हैं कि मेरी आवाज से सोहराब मोदी भी बहुत प्रभावित थे। उन्होंने अंग्रेजी फिल्म के हिन्दी रूपांतरण बोलता जंगल में मुख्य किरदार साबु की आवाज को हिन्दी में मुझसे ही डब करवाया था। मेहनताना के रूप उन्होंने मुझे 600 रुपये भी दिये। हालांकि बाद में कुछ घरेलू समस्या के कारण वर्ष 1956 में वापस पटना लौटना पड़ा। उसके बाद पटना आकाशवाणी से जुड़ गया और वर्षों नाटकों में अभिनय करता रहा। श्रीमिश्रा कहते हैं कि बिहार में मुझे सबसे ज्यादा प्रसिद्धि लोहा सिंह के नाटक से मिली। फाटक बाबा का चरित्र निभाने के कारण लोग मुझे फाटक बाबा के नाम से जानने लगे। वर्तमान हिन्दी सिनेमा एवं नाटक को श्री मिश्रा बकवास मानते हैं। कहते हैं एक वह जमाना था जब साफ-सुथरी एवं उद्देश्यपूर्ण फिल्में बना करती थी। एक-एक संवाद पर कलाकार से घंटों मेहनत करवाया जाता था। अब वह बात नहीं रही। अब सब कुछ व्यवसाय हो गया।
रिपोर्ट - विनय, मुजफ्फरपुर से

हेलन से मिलने को बेताब हमीदन

रुपहले फिल्मी पर्दे के खलनायक अजीत की मोना डार्लिंग और कभी जवां दिलों की धड़कन रहीं हेलन को भले ही अपनी जन्मभूमि याद हो या न हो, लेकिन उनकी बड़ी बहन 75 वर्षीय हमीदन की आंखें उनसे मिलने के लिए वर्षों से बेकरार है। झुर्रियों भरे चेहरे पर मोटे काले फ्रेम का चश्मा लगाये दुबली-पतली, छोटे कद-काठी की गोरे रंगतवाली हमीदन अपनी बहन को याद कर तड़प उठती है। बात करते करते बचपन की यादों में खो जाती हैं और फफक कर रो पड़ती हैं। भितिहरवा के समीप श्रीरामपुर गांव में जन्मी तीन सगी बहनें खतुलिया, हमीदन और ईदन एक-एक कर जुदा होती गयीं। सबसे बड़ी बहन खतुलिया अब इस दुनिया में नहीं रही। दूसरी हमीदन के पांव भी कब्र में लटके हैं। और सबसे छोटी ईदन यानी हेलन फिल्मी दुनिया की चकाचौंध में इस कदर खो गयी कि अपने लोगों को ही भुला बैठी। बकौल हमीदन 'मिल जइहें त भेंट करेब आ अपना घरे चल आयब। उहो अपना घरे चल जइहें। बस एक बार खाली मिले के चाहतानी।' पिछले दिनों एक अखबार में चंपारण महोत्सव की खबर छपी थी जिसमें आयोजकों ने हेलेन को बुलाने की बात कही थी। यह खबर पढऩे के बाद हमीदन अपने बड़े बेटे के साथ अखबार के नरकटियागंज कार्यालय पहुंचीं। उनका बस एक ही सवाल था कि 'बबुआ हमार बहिन आवेवाला बाड़ी। कब तक अइहे?' शिकारपुर थाना क्षेत्र के मुजौना गांव निवासी हमीदन के चार बेटे और तीन बेटियां हैं। सभी की शादी हो चुकी है। नाती-पोतों से घर भरा है। बड़े लड़के का नाम अली हसन अंसारी है। उम्र करीब 45 वर्ष है। शहर के वार्ड नंबर 9 में भी इनका एक मकान है। परिवार खेती पर निर्भर है। खेती-बारी की वजह से परिवार के सदस्य मुजौना गांव में भी रहते हैं। अली हसन की मानें तो उनकी मां हमीदन ने कई बार अपनी बहन हेलन से मिलने के लिए मुंबई ले चलने की बात कही, लेकिन वे नहीं जा सके। उन्हें इस बात का डर है कि जाने पर पता नहीं कोई पहचान पायेगा या नहीं। यह पूछने पर कि अचानक कैसे आ गयी छोटी खाला की याद, अली हसन कहते हैं 'बेतिया में होने वाले चंपारण महोत्सव की खबर अखबार में पढ़ा। इसमें हेलेन के आने की जानकारी दी गयी थी। इसकी चर्चा घर में होने पर मां परेशान करने लगी। नहीं मानी। कहा ले चलो मुझे अखबार वाले के पास...।' बहरहाल, हमीदन बचपन की यादों में खो जाती हैं और बताती हैं- तब के समय में हैजा से गांव का गांव साफ हो जाता था। इसी बीमारी से पिता फेंकू मियां और माता बुधिया की मौत हो गयी। तब तीनों बहनों की उम्र सात से दस के बीच थी। दो भाई भी थे। कुल पांच भाई-बहनों का गुजारा बिना मां-बाप के सहज नहीं था। तब मामा कोलाई मियां ने बहुत मदद की। तीनों बहनों के साथ दोनों भाइयों को अपने गांव पचरुखिया ले गये। खतुलिया की वहीं बीमारी से मौत हो गयी। इसी बीच भाभी भी हैजा से अल्लाह को प्यारी हो गयीं। तब कोलाई मियां ने ईदन को चनपटिया थाना क्षेत्र के चूहड़ी गांव स्थित मिशन में डाल दिया। ईदनी वहीं रहने लगी। कुछ साल बीते तभी मामा का भी इंतकाल हो गया। अब इस परिवार में दो भाई बेचू व शमशुद्दीन तथा एक बहन हमीदन यहां रह गये। भाई लोग तबतक कुछ समझदार हो गये थे। भाइयों ने मिलकर हमीदन का निकाह कर दिया, लेकिन कभी ईदन की कोई खोज-खबर नहीं ली गयी।' इतना सुनाते-सुनाते हमीदन फफक कर रो पड़ती हैं। वह चुप्पी तोड़ती हैं और पुन: कहती हैं- 'सात गो चि_ी भेजले रहे श्रीरामपुर। लेकिन लोग डेरा गइल कि ई कहां से कागज आईल बा। वो घड़ी लोग पढ़ल-लिखल ना रहे। चि_ी लुका देहलस लोग।' कई साल बाद मालूम हुआ कि चि_ियां ईदन यानी हेलेन ने ही भेजे थे। दरअसल, तब इस परिवार के लोगों ने यह समझा था कि मिशन वाले बच्ची की परवरिश के बदले कुछ खर्च वगैरह नहीं मांग बैठें। इस भय से कोई उससे मिलने नहीं गया। अब यह अलग सवाल है कि चुहड़ी से ईदन कैसे मुंबई पहुंची और फिल्मी दुनिया में उसने कैसे कदम रखे। चुहड़ी मिशन के फादर माइकल और फादर पाल गोसेफ की माने तो उन्होंने भी ये बातें सुनी हैं। चुहड़ी के रहने वाले अवकाश प्राप्त शिक्षक अब्दुल सत्तार बताते हैं कि हेलेन यहीं अनाथालय में पली बढ़ी। उन्हें अब भी याद है कि जब यहां फिल्म खानदान लगी थी तो उसके एक गीत 'मिट्टी में मिल गयी मेरी जवानी...।' पर नृत्य करने वाली हेलेन को देखने के लिए लोग टूट पड़ते थे। चुहड़ी की बुजुर्ग महिला अगुस्तिना बैप्टिस्ट के अनुसार इस अनाथालय में दो बच्चियां ऐसी थीं जो नृत्य-गीत में कुछ अधिक ही रुचि रखती थीं। किसी भी कार्यक्रम में उनका बुलावा होता था। बाद में एक परिवार ने एक लड़की को अपनी बेटी बना लिया और मुंंबई चला गया। सच्चाई चाहे जो भी हो, एक बात जो सत्य है कि बड़ी हस्तियां अपनी जड़ों से कटती जा रही हैं। इसी कड़ी में हेलेन भी शामिल हैं। हमीदन के अनुसार अब उस पीढ़ी में केवल दो ही लोग बचे हैं, हमीदन और ईदन। हेलन का नाम बचपन में ईदन क्यों पड़ा? इसके जवाब में हमीदन कहती हैं कि उसका जन्म ईद के दिन हुआ था। आश्चर्य की बात यह है कि जिसे दुनिया देखने को बेताब रहती थी उसे रुपहले पर्दे पर हमीदन ने कभी नहीं देखा है। (यह स्टोरी भोपाल से प्रकाशित मासिक पत्रिका राष्ट्रीय मंथन में छप चुकी है।)

रिपोर्ट- सुरेन्द्र त्रिवेदी, मुजफ्फरपुर से

काठमांडू : शराब, सेक्स व जुआ

शाम ढलते ही जब हिमालय की वादियां रोशनी से जगमगा उठती हैं। समूचा इलाका सर्द हवाओं की चपेट में होता है। तब सड़कों पर सरपट दौड़ती टैक्सी किसी पर्यटक को लेकर पहुंचती है डांस बार या कैसिनो। इस शहर की पहचान शराब, सेक्स और जुआ है। कहने को पर्यटक यहां प्रकृति से रूबरू होने आते हैं। लेकिन यहां पहुंचते ही उनके मन-मस्तिष्क में बार-बार दस्तक देती हैं बार बालाएं। माओवादी सरकार यहां रात ग्यारह बजे के बाद डांस बार पर प्रतिबंध लगा रखी है। यह सिर्फ कहने भर को है। दरअसल, रात रंगीन होती है ग्यारह बजे के बाद ही। चहुंओर फिजां में उड़ती शराब की मादकता के बीच महज 14 से 16 साल की लड़कियां अपनी बल खाती अदाओं के साथ अद्र्ध नग्न डांस करती नजर आती हैं। यह उनका शौक नहीं पेट की मजबूरी है, जो महीने के अंत में महज दो से तीन हजार के दरमाहे से पूरी होती है। इससे भी जब जरूरतें पूरी नहीं होती तो रात गये इनमें अधिकांश लड़कियां बन जाती हैं सेक्सवर्कर। काठमांडू के कलंकी चौक पर व्यवसाय करने वाले सूर्य कंडेल कहते हैं 'नेपाल में बेरोजगारी इस कदर है कि कोई दूसरा उपाय नहीं। यदि डांस बार बंद हो जाये तो कई घरों में चूल्हा ठंडा पड़ जायेगा। माओवादी सरकार विकास और शांति बहाली की दिशा में पूरी तरह विफल है। यहां सिर्फ राजा का चेहरा बदला है।Ó
डांस बार में तीन स्तर पर लड़कियां अपनी सेवाएं देती हैं- वेलकम गल्र्स के रूप में, डांसर के रूप में और सेक्सवर्कर के रूप में। पंद्रह वर्षीय कविता थापा डांसर है। इस पिछले वर्ष बार ज्वाइन किया था। कहती है 'यहां आने वाला हर ग्राहक मनोरंजन से अधिक सेक्स चाहता है।Ó बहरहाल, पूरी दुनिया में जिस नेपाल की पहचान एक उग्र माओवादी विचारधारा के विस्तार के रूप में हुई है। जहां करीब 200 साल के राजतंत्र के खात्मे के साथ-साथ माओवादियों के जनयुद्ध की वीर गाथाएं सुनायी जाती हैं, वह देश अब भी तमाम सामाजिक बुराइयों का केन्द्र है। स्त्री प्रधान इस देश में शोषण की शिकार सबसे अधिक महिलाएं हैं। यह देश लड़कियों के सबसे बड़े निर्यातक के रूप में उभर चुका है। दुनिया के तमाम चकलाघरों में यहां की लड़कियां मिल जायेंगी। ट्रैफिकिंग का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इंडो-नेपाल बार्डर स्थित सिर्फ रक्सौल में आये दिन लड़कियां पकड़ी जाती हैं। इन बुराइयों से निपटने के लिए सरकार के पास कोई ब्लूप्रिंट नहीं है। (काठमांडू यात्रा के दौरान जैसा देखा-महसूस किया)

रिपोर्ट :- एम. अखलाक

शहर में बज रहा साढ़े बारह

यों तो आपने लोगों के चेहरे पर बारह बजते देखा-सुना होगा, लेकिन इन दिनों 'शहर के चेहरेÓ पर भी साढ़े बारह बज रहे हैं। जी हां, यह मुजफ्फरपुर सरैयागंज टावर है। शहर के बीचो-बीच। टावर जो याद दिलाता है जंग-ए-आजादी के दीवानों की शहादत। जहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की प्रतिमा हर क्षण शहर को गौरवान्वित करती है। और टावर पर लगी चारों दिशाओं में घडिय़ों की सूइयां शहर को समय का बोध कराती हैं। ये घडिय़ां अब सिर्फ कहने को हैं। इसमें हर समय साढ़े बारह बजता नजर आता है। शहर भले ही समय की रफ्तार के साथ भाग रहा है, लेकिन घडिय़ों की सूइयां ठहर गयी हैं। अस्त-व्यस्त इस चौराहे पर हर सुबह शहर आने-जाने वाले इस घड़ी में दिखायी देते समय का मतलब समझना चाहते हैं। एक जमाना था जब शहर के कई बुजुर्ग हवाखोरी के लिए निकलते थे तो इसी घड़ी से अपनी घड़ी का वक्त मिलाया करते थे। तब शहर की दिनचर्या निर्धारित करती होगी यह घड़ी। मगर वह जमाना अब कहां? आज के बच्चे जो प्राथमिक कक्षाओं में ही घड़ी देखना सीख जाते हैं, हर रोज स्कूल जाते और लौटते हुए बच्चों के लिए यह घड़ी मजाक बन कर रह गयी है। इसकी महत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सुदूर गांवों से आने वाले अधिकांश लोग शहर में प्रवेश करने से पहले इस 'इकलौतीÓ घड़ी को देखकर दिनचर्या तय करते थे। चौराहे की इस घड़ी को घड़ीसाज ने बड़े जतन से बनाया होगा। छोटी-बड़ी सूइयों के कील-कांटों को ठीक किया होगा, ताकि शहर को समय का बोध होता रहे। लेकिन इस चौराहे से दिनभर गुजरने वाले हुक्मरान और राजनेता इसे ठीक कराने में असमर्थ हैं! टावर की उपेक्षा या अनदेखी कोई नयी बात नहीं है। पिछले दिनों यहां कुछ शरारती तत्वों ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की प्रतिमा पर कालिख पोत दी थी। वहीं एक बार यहां अंकित शहीदों व सेनानियों के नाम भी मिटने लगे थे। तब जिला प्रशासन ने लंबे-चौड़े दावे किये थे, लेकिन परिणाम सिफर रहा। कहने को एक सरकारी बैंक ने इस टावर के सुन्दरीकरण के नाम पर अपनी होर्डिंग्स भी लगा रखा है, लेकिन उसे भी इसकी परवाह कहां? क्या कोई इस ऐतिहासिक धरोहर की सुध लेगा?
गौरतलब है कि इस टावर पर तिरहुत प्रमंडल के 101 सेनानियों के नाम अंकित हैं। 1952 में बने इस शहीद स्मारक टावर का उद्घाटन प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने किया था। इसका निर्माण स्वतंत्रता सेनानी पंडित भूरामल शर्मा के नेतृत्व में हुआ था। टावर पर लगी यह घड़ी चाबी से चलती है, लेकिन वर्षों से बंद पड़ी है। फिलहाल यह चाबी नगर निगम के दो दिग्गजों के पास है। पंडित भूरामल शर्मा स्मृति सभा के संस्थापक पंडित संतोष शर्मा इस टावर की उपेक्षा पर कई पत्र केन्द्र व राज्य सरकार को लिख चुके हैं। पत्र के जवाब भी आये, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।

रिपोर्ट - एम. अखलाक

मुजफ्फरपुर में हुआ था लोटा-धोती आंदोलन

ब्रिटिश हुकूमत भले ही अपनी कूटनीति के सहारे हिन्दुस्तान पर दो सौ साल शासन करने में सक्षम रही, लेकिन हकीकत यह भी है कि अंदर से हुक्मरान काफी कमजोर और डरपोक थे। शायद यही वजह थी कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश हुक्मरान मुजफ्फरपुर में लोटा और धोती आंदोलन से डर गये। जंग-ए-आजादी में मुजफ्फरपुर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 1920, 1930, 1931 और 1942 में यहां के लोगों ने जो त्याग और बलिदान किया, वह इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। 1757 की पलासी की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल का शासन संभाला। बिहार उन दिनों बंगाल में ही था। तिरहुत की जनता ने मन से इस हुकूमत को कभी नहीं स्वीकारा। 1855 में मुजफ्फरपुर जेल के कैदियों ने लोटा आंदोलन किया। जेल प्रशासन को आशंका थी कि कैदी पीतल के लोटे से उन पर हमला न कर दें। इसी डर से उन्हें पानी पीने के लिए पीतल के लोटे के बजाय मिट्टी के बर्तन दिये गये। कैदियों ने इसे अपमान समझा और बगावत शुरू कर दी। जेल में कई दिनों तक कैदियों ने आंदोलन चलाया। अंतत: जेल प्रशासन को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। बहरहाल, 1917 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की शुरुआत उत्तर बिहार से की। उन्होंने चंपारण में नील की खेती करने वाले अंग्रेज जमींदारों के शोषण के खिलाफ निर्णायक आंदोलन छेड़ा। गांधी जी के इस आंदोलन में सैकड़ों लोग शामिल हुए। इसी दरम्यान इस क्षेत्र के डाक कर्मचारियों ने धोती आंदोलन चलाया। इसका नेतृत्व योगेन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव और सहदेव राम कर रहे थे। दोनों के नेतृत्व में डाक कर्मचारियों ने अंग्रेजों के सामने धोती धारण कर उन्हें न सिर्फ चिढ़ाया, बल्कि अवाम के बीच स्वदेशी का स्वाभिमान भी जगाया। लोग उनके साथ थे और हुकूमत खुद को बेबस पा रही थी।
आजादी के दीवाने
मथुआ मंडल, सुंदर महरा, सुखदेव राउत, परसन साह, हरिहर प्रसाद, वशिष्ट सिंह, अनुराग सिंह, रामनंदन साह, वंशी दास, भदई कवारी, अमीर सिंह, रामयाद तिवारी, जोगेन्द्र सिंह, चतुर्भुज सिंह, सहदेव साह, महावीर राउत, गोकुल सहाय, मौजे झा, जुब्बा सहनी, प्रदीप साह, बांगुर सहनी, जानकी सिंह, अमीर सिंह, रामफल मंडल, बलदेव महतो, राम बहादुर प्रसाद, रामखेलावन राय, रामगुलाम साह, रासबिहारी सिंह, अनिरुद्ध सिंह, सिंहेश्वर ठाकुर, मथुरा ठाकुर, रामअवतार राम, सरयू सिंह, खेलावन दास, भगवान लाल, रामनारायणणति, केश्वर साही, दीपनारायण मिश्र, सहदेव साह, विशनदेव पटवा, जय गोविन्द पासवान, महादेव राउत, मो. हसीन, मो. युसूफ, सकल राय, सुकन ठाकुर, छकौरी लाल, अनुराग सिंह, बैकुंठ शुक्ल, योद्धा सिंह।

रिपोर्ट - एम. अखलाक

फांसी चढऩे वाले सेनानी वारिस अली

अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 1857 में जहां मेरठ और दिल्ली में सिपाही विद्रोह के जरिये स्वाधीनता संग्राम की लपटें धधकने को बेताब थीं, वहीं तिरहुत की जमीन भी आजादी के लिए मचल रही थी। यहां के सपूतों में भी अंग्रेजों के खिलाफ नफरत और असंतोष के बीज पनप चुके थे। मेरठ के सिपाहियों ने 10 मई 1857 को जहां विद्रोह का बिगुल फूंक कर अंग्रेजी सल्तनत की नींव हिला दी, वहीं मुजफ्फरपुर के एक थाने में पदस्थ सिपाही वारिस अली की देशभक्ति भी अंग्रेजी हुकूमत के लिए परेशानी का सबब बन गयी। अकेले वारिस अली ने तिरहुत में अंग्रेजी सत्ता को चुनौती दे डाली। वीर कुंवर सिंह के सहयोगी माने जाने वाले वारिस अली ने यहां अंग्रेजों को नाको चने चबा दिये। फिर क्या था, अंग्रेजी हुकूमत कुछ इस तरह बौखलाई कि स्वतंत्रता सेनानियों को कुचलने और यहां पदस्थ अंग्रेज सिपाहियों की सुरक्षा के लिए एक खास रणनीति तैयार की। कोलकाता से हजारों की संख्या में सैनिक बुला लिये गये और देखते ही देखते मुजफ्फरपुर सैनिक छावनी में तब्दील हो गया। 23 जून 1857 को वारिस अली को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर उनके खिलाफ मुकदमा चलाया और अंतत: उन्हें 6 जुलाई 1857 को फांसी दे दी गयी। कहा जाता है कि स्वतंत्रता संग्राम में पहली फांसी वारिस अली को ही दी गयी थी।
रिपोर्ट - एम. अखलाक