सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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सोमवार, 25 अप्रैल 2011

कैसे गाएं, धरती बनी है दुल्हन साथियो

पृथ्वी दिवस : उत्तर बिहार में छिन गये जल-जंगल-जानवर रूपी गहने

धरती खुदा की लाजवाब नेमत है। आईना वही रहता, चेहरे बदल जाते हैं। एक वक्त ऐसा था जब उत्तर बिहार की धरती जल, जंगल और जानवर से आबाद थी। धरती जब हरियाली की चादर ओढ़कर मचल उठती तो कृषक फसल उत्सव का गान अलापते झूमने लगते। पर रफ्ता-रफ्ता धरती को हमारी ही नजर लग गई।

धरती के दामन पर हमने धड़ल्ले से रासायनिक खाद छिड़ककर हरियाली को लूट लिया। अब जैविक खाद के बहाने हरियाली लौटाने की बात कर रहे हैं। निर्झर बहने वाली नदियों को कुछ यों छेड़ा कि अब कहीं पानी-पानी है तो कहीं सूखा। इसी तरह पहले हमने झोले को ताक पर रखकर पॉलीथिन से दोस्ती गांठ ली, अब बांझ होती धरती पर मर्सिया गा रहे हैं।

मधुबनी, दरभंगा और समस्तीपुर में धरती की प्यास बुझाने वाले हजारों तालाबों, कुओं पर पिछले आठ-दस सालों में धड़ाधड़ हमने मकान खड़े कर लिए। अब माछ और मखाना का उत्पादन गिर रहा है तो छाती पीट रहे हैं। सिर्फ मधुबनी जिले में दस हजार तालाब थे। अब 3-4 हजार पर सिमट गये हैं। आखिर कहां गए तालाब?

उधर, समस्तीपुर जिले में वाया नदी और पश्चिमी चंपारण में चंद्रावत सूख चुकी है। पूर्वी चंपारण में लालबकेया नदी और सीतामढ़ी में लखनदेई नदियों की तलहटी भी चमक रही है। नेपाल से निकलने वाली सरिसवा नदी अब नाला बन चुकी है। कल-कारखाने नदी में ही जहर उगल रहे हैं। शान-ए-मोतिहारी यानी मोतीझील भी इतिहास बनने की ओर अग्रसर है। पर, इस बारे में सोचने की किसी को फुर्सत कहां? समस्तीपुर के तो दर्जनों गांवों में पीने के लिए पानी नहीं मिल रहा है। जहां धरती सौ फुट पर ही पानी उगल देती थी, अब वहां का जलस्तर 300 फुट नीचे चला गया है।पश्चिमी चंपारण स्थित वाल्मीकिनगर टाइगर रिजर्व आज भी सूबे का गौरव है, लेकिन कहने भर के लिए। जंगल से न सिर्फ घास, पेड़-पौधे बल्कि जानवर भी गायब हो चले हैं। यहां अंधाधुंध पेड़ों की कटाई और जानवरों का शिकार आम बात बन गई है। कभी यहां दर्जनों बाघ दहाड़ते थे। अब बमुश्किल एक दर्जन बचे हैं। इसी तरह मोतिहारी शहर में सड़कों के किनारे लगाए गए ऐतिहासिक महोगनी के पेड़ सबकी आंखों के सामने काट डाले गए। धरती का आंचल सपाट हो गया। पर किसी को तरस नहीं आया। ऐसे संकट के दौर में हम ताल ठोक कर कैसे गाएं - आज धरती बनी है दुल्हन साथियो।

प्रस्‍तुति - एम. अखलाक

(पृथ्‍वी दिवस पर यह रपट दैनिक जागरण, मुजफ्फरपुर के पेज वन पर छप चुकी है।)

ऐसे थे आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री

आचार्य श्री से जुड़े संस्मरण शहर के साहित्यकारों की जुबानी

भाषा में अशुद्धि बर्दाश्त नहीं थी -
गुरुदेव आचार्य प्रवर के सान्निध्य में रहकर छात्र जीवन से ही कविताएं लिखने लगा था। इस कारण उनके यहां आना जाना लगा रहता था। एक दिन सुबह नौ बजे कालेज जाने से पहले ही उनके दर्शनार्थ निराला निकेतन पहुंचा तो किसी ग्रामीण क्षेत्र से आए एक शिक्षक-कवि उन्हें लगातार अपनी कविताएं सुनाए जा रहे थे, घोर अशुद्धियों से भरी हुई। मगर विवश भाव से बिना कोई टिप्पणी किए आचार्य श्री उन्हें सुने जा रहे थे। मैं उन्हें प्रणाम कर ज्यों ही वहां बैठा, उन्होंने राहत की सांस ली। उन कवि महोदय से उन्होंने मेरा परिचय कराया और उन्हें कहा ये भी कवि-साहित्यकार हैं। बची हुई कविताएं इन्हें सुनाइए, मैं जरा गायों को चारा-पानी दे आऊं, भूखी होंगी बेचारी। आपकी कविताओं से तो उनका पेट नहीं भरेगा। यह घटना इस बात की पुष्टि करती है कि महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री को भाषा में अशुद्धि जरा भी बर्दाश्त नहीं थी।

- डा. शेखर शंकर, साहित्यकार


सिर्फ वर्तमान मुझमें जीता है -
महाकवि आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री हर स्थिति में वर्तमान के पल के साथ जीने के आदी थे। लगता ही नहीं था कि उनकी चेतना कभी अतीत में डूबकर वर्तमान का अनदेखी कर देगी। अभी-अभी की बात है, शास्त्री जी एसकेएमसीएच में अपनी धर्मसंगनी छाया देवी के साथ सघन चिकित्सा में चल रहे थे। परिवेश में हरकत थी। लोग सोचते थे, पता नहीं कब उनकी सांस की डोर ढीली पड़ जाए और उनकी चेतना चिरविस्मृति की चादर ओढ़कर शून्य में विलीन हो जाए। शायद ऐसा सोचकर ही कुछ लोग पारंपरिक संस्कार से वशीभूत हो चले थे। शास्त्री जी के अत्यंत निकट छाया की तरह निरंतर उनके पीछे डोलने वाले उनके साले जयमंगल मिश्र आइसीयू कक्ष में उनके साथ थे। इसी बीच मैं वहां पहुंचा। मुझे देखकर शास्त्री जी की बेचैनी स्निग्ध मुस्कान में परिणत हो गई। लेकिन होंठो पे शब्द आने से रहे। श्री मिश्र ने शास्त्री जी से पूछा, इन्हें पहचानते हैं आप? उत्तर मिला, इस तरह उटपटांग प्रश्न क्यों पूछते हो? ऐसा प्रश्न तो उनसे पूछा जाता है जो आखिरी सांस लेते हुए मृत्यु के आलिंगन के लिए विवश दिखाई देते हैं। मैं कोई विवश व्यक्ति नहीं हूं। पूरे रूप में वही हूं जिस रूप में दुनिया मुझे निरंतर देखती रही है। शायद तुम्हारे चले जाने के बाद उसी रूप में देखती रहेगी।

- डा.रामप्रवेश सिंह, हिन्दी विभागाध्यक्ष, बीआरए बीयू मुजफ्फरपुर


अपने वंश का अंतिम आदमी -
1990 के दशक की बात है। शास्त्री जी की बड़ी बहन मानवती मिश्रा बीमार थीं। उन दिनों मैं दलसिंह सराय कॉलेज का प्राचार्य था। शास्त्री जी के अत्यंत निकट होने तथा उन पर पहला शोध प्रबंध लिखने के कारण उनका मुझे स्नेह मिलता था। यही वजह थी कि बहन के बीमार होने पर उन्होंने मुझे सूचना देकर बुलाया। जब मैं निराला निकेतन आया तो संयोगवश बीमार मानवती मिश्रा कराहने लगीं। जोर-जोर से चिल्लाने लगीं। सहयोग के लिए वे दौड़कर वहां गए। मैं भी गया। बाद में उन्होंने सेवा के लिए दो आदमी भेजने को कहा। मैंने कॉलेज के दो चतुर्थ वर्गीय कर्मचारियों को निराला निकेतन में तैनात कर दिया। पर मानवती मिश्रा नहीं बच सकीं। उनका निधन हो गया। श्राद्ध में जब यहां आया तो बहुत साहित्यकार जुटे हुए थे। आंगन में पगड़ी बांधने का काम हुआ। तत्पश्चात वे एकाएक आंगन के बाहर पिताजी के मंदिर में आए और अपनी पगड़ी उतार उनके चरणों पर रख दिया- 'लीजिए पिताजी यह पगड़ी। मैं आपके वंश का अंतिम आदमी हूं।' और कुछ देर तक वहीं लेटे रहे। मौजूद लोग स्तब्ध!

- डा. आश नारायण शर्मा, सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य, मिथिला विवि, दरभंगा


पिता-पुत्र आमने सामने बैठते हों -
आचार्य श्री जहां बैठा करते थे उसके ठीक सामने उनके पिता की मूर्ति है। ऐसा लगता था मानों पिता और पुत्र आमने-सामने बैठे हों। मेरा घर बगल में है। सो, उनका सानिध्य मुझे बचपन से ही मिलता रहा। वे बिना पिता को भोग लगाए अन्न की थाली ग्रहण नहीं करते थे। कहते थे कि आज मैं जो भी हूं उन्हीं के कड़े अनुशासन का फल है। पिता ने मेरे कारण दूसरा विवाह नहीं किया। शास्त्री जी के ठीक पीछे नीम का एक पेड़ है। एक बार उस पर करैले की लतर चढ़ गई। वे आने-जाने वालो को दिखाकर कहा करते- 'देखो यह मेरा प्रतीक है। एक तो करैला, उस पर नीम चढ़ा।' गालिब की तरह अपना मजाक उड़ाने की क्षमता कम रचनाकारों में होती है। शास्त्री जी के व्यक्तित्व की यह एक खास पहलू थी। पांव की हड्डी टूटने पर वे कभी कभी खीज जाते। कहते, 'हे इश्वर, मैं अपने आसपास के इन कुछ मनुष्यों को बर्दाश्त नहीं कर पाता हूं। तुम सृष्टि के सारे मनुष्यों को कैसे बर्दाश्त करते होगे। सचमुच तुम महान हो।'

- डा. रश्मि रेखा, साहित्यकार


... इस तरह अपने हो गए शास्त्री जी -
1974 की बात है। आचार्य श्री भीखना पहाड़ी पटना में बेला पत्रिका छपवाया करते थे। हिन्दुस्तानी प्रेस के निकट ही एक मकान में आलोक धनवा रहते थे। मैं दिन के साढ़े दस बजे आलोक के साथ गपशप कर रहा था। इसी बीच नीचे से आवाज आई। आलोक जी हैं? मैंने कहा- ये तो शास्त्री जी की आवाज लगती है। आलोक नीचे गए और शास्त्री जी को लेकर ऊपर आए। मुझे देखकर शास्त्री जी ने अपनी सहज विनोदमयी मुद्रा में कहा- अरे, यह नास्तिक आपके यहां कैसे? आलोक ने कहा- नंदन जी हमारे सहज आत्मीय मित्रों में से एक हैं। उल्लेखनीय है कि गंगा में ऐसी बाढ़ आई थी कि पहलेजा होकर लौटना बंद हो गया था। हमलोगों ने मैटनी-शो में गुलजार निर्मित फिल्म मौसम देखने का प्रोग्राम बनाया। इसके बाद पटना से समस्तीपुर पैसेंजर से दोनों साथ लौटे। यात्रा के बाद हम दोनों न केवल रचनात्मक स्तर पर बल्कि मानवीय स्तर पर इतने गहरे आत्मीय हो गये कि हमारे सुख दुख और चिंताएं एक हो गई।

- नंद किशोर नंदन, साहित्यकार


हाय, तू भी मनुष्य हुआ चाहती हो -
एक बार की बात है। अपने कुत्ते और बिल्लयों से घिरे आचार्य श्री बैठे हुए थे। कई साहित्यकार और पत्रकार भी मौजूद थे। इसी बीच उनकी एक कुतिया बिल्ली पर झपट पड़ी। आचार्य श्री ने उसे डांटते हुए बड़े प्यार से कहा- हाय तू भी मनुष्य हुआ चाहती हो।

- डा. संजय पंकज, साहित्यकार


प्रस्तुति : एम. अखलाक

(ये संस्‍मरण दैनिक जागरण में प्रकाशित हो चुके हैं।)

'मेरे लिए पिता ही मां थे और बाप भी'

आर्चाय जानकी वल्लभ शास्त्री की कहानी उन्हीं की जुबानी

कुछ माह पहले महाकवि आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री ने एक इंटरव्यू में अपने बारे में कुछ-कुछ बताया था। पेश है उनसे जुड़ी एक छोटी-सी कहानी उन्हीं की जुबानी -
शास्त्री जी कहने लगे- 'गया से भी 40 मील आगे एक गांव है मैगरा। फिर उसे समझाते हुए अंग्रेजी में स्पेलिंग भी बताते हैं, एम ए आई जी आर ए। शायद पुरातनकाल में यह मायाग्राम रहा हो, और समय के साथ मैगरा बन गया हो। गौतम बुद्ध वाली जगह से हूं।
मां को मैंने कभी नहीं जाना। मेरी मां बचपन में ही मुझे छोड़ कर चली गई। एक दिन घर में लकड़ी नहीं थी, उन दिनों लकड़ी पर भोजन पकता था। पिताजी कहीं जा रहे थे, मां ने उनसे कहा, किसी को बोल दो लकड़ी दे जाएगा। नहीं तो भोजन नहीं बन पाएगा। क्रोध से पिताजी ने कहा कि सामने जो लकड़ी है उसी को जला लो। वह लकड़ी पूजा में प्रयोग के लिए किसी चीज की थी। काफी कीमती। ... दूसरे दिन मां को सांप ने काटा। मां चली गई। 5 वर्ष का रहा होऊंगा मैं।
मेरे पिताजी महापुरुष थे। मेरे पिता इतने बहादुर निकले कि लोगों के लाख कहने और समझाने पर भी उन्होंने दूसरी शादी नहीं की। किसके लिए? मेरे लिए। लड़के के लिए। अखंड मंडलाकार रह गए। पूजनीय थे। चले गए पिताजी, मैंने पिता का मंदिर बनवा लिया। वो देखो सामने। ये मंदिर मैंने अपने पिता की याद में बनवाया है। मैं कभी मंदिर में नहीं गया और न ही किसी देवता को पूजा। मेरे भगवान मेरे पिता हैं। उन्होंने कभी मेरा नाम नहीं लिया। बस एक ही बार बोले, तब चलें न जानकी वल्लभ? और चल पड़े! दुनिया में ऐसा पिता कहां मिलता है! सबसे बड़ी बात है कि यों कहने के लिए पिता होते हैं, वो नहीं थे, बकायदा पिता थे! बहुत बड़े विद्वान थे। छोटी उम्र में मां चली गई। मेरा जीवन चौपट हो गया था। मातृविहीन बालक था मैं। किसी के कहने पर शादी के लिए तैयार नहीं थे। किसी काम के लिए तैयार नहीं थे। सब काम मेरा गड़बड़ा गया। उन्होंने मां की भूमिका भी निभाई। मेरे लिए मेरे पिता ही मां थे और बाप भी। जब मैं मुजफ्फरपुर आ गया तो उनको भी अपने पास ले आया।''

प्रस्‍तुति - एम. अखलाक

(यह खबर आचार्य जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री के निधन पर दैनिक जागरण मुजफ्फरपुर में छप चुकी है)

अस्त हुआ उत्तर छायावाद का सूरज

अब फिजां में गूंजेंगे 'किसने बांसूरी बजाई'

सूबे की सांस्कृतिक राजधानी मुजफ्फरपुर को साहित्यिक ऊर्जा प्रदान करने वाला, साहित्य की नई पीढिय़ों को तराशकर पहचान दिलाने वाला और देश भर में उत्तर छायावाद के गढ़ के रूप में बहुचर्चित निराला निकेतन के हिस्से में अब केवल अफसाने ही शेष रहे गए हैं। क्योंकि महाकवि आर्चाय जानकी वल्लभ शास्त्री अपनी यादों के सहारे हमें छोड़कर बहुत दूर चले गए हैं। हवा जब-जब निराला निकेतन की माटी को छूकर खुशबू बिखेरती हुई इठलाएगी, तब-तब आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री की कही बातें, चेहरे के भाव, गीत और कविताएं हमारे बीच उनके जिंदा होने का एहसास दिलाती रहेंगी।कोई भी शहर, राज्य या देश वहां रहने वाले लोगों के होने से होता है। लेकिन इस शहर में आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के होने का एक गंभीर मतलब था। सच-सच कहा जाए तो यह शहर उनसे था। उनके कारण जाना-पहचाना जाता रहा है। यहां की साहित्यिक लीची की मिठास अगर दूर देश के लोगों को भाती थी तो नि:संदेह आचार्य श्री के कारण। इस शहर ने भले ही उन्हें बहुत कुछ नहीं दिया हो, पर वे अपनी साहित्यिक पीढिय़ों के लिए बहुत कुछ छोड़ गए हैं। उनके संस्कारों में पल-बढ़ कर जवान हुआ यह शहर शायद ही कभी उन्हें भूल पाएगा।एक ऐसा भी दौर रहा है जब आचार्य श्री की साहित्यिक गतिविधियां न सिर्फ फलक पर थीं, बल्कि महाप्राण निराला, पृथ्वीराज कपूर, उदय शंकर भट्ट, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेद्वी, आचार्य त्रिलोचन शास्त्री, कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी, क्रांतिकारी कवि रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन, आचार्य महाशंकर मिश्र, आचार्य जयकिशोर नारायण सिंह व नवगीत प्रवर्तक राजेन्द्र प्रसाद सिंह सरीखे दर्जनों कवि-साहित्यकार निराला निकेतन का आतिथ्य स्वीकार कर गर्व करते थे। इतना नहीं नहीं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, स्व। चंद्रशेखर, उप राष्ट्रपति रहे स्व। भैरो सिंह शेखावत और सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. कर्पूरी ठाकुर भी निराला निकेतन में दस्तक दे चुके हैं। ये नेता कितने दीवाने थे। इसकी बानगी आचार्य श्री सुनाया करते थे। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने स्व. कर्पूरी ठाकुर के बारे में बताया था- 'उन्होंने केवल एक, मेरी एक कविता सुनी, मोहित हो गए, भक्त हो गए वो। 'किसने बांसूरी बजाई' करके उस जमाने में एक गीत गाता था मैं। इस गीत को जब उन्होंने मेरे गले से सुना तो गला पसंद आ गया उनको। गला ही काट लिया मेरा। जिन्दगी भर के लिए उन्हीं का हो के रह गया मैं। उन्होंने ही मुझको प्रोफेसर बनाया पटना में। जो कुछ काम किया वहीं किया। बताइए कहां मैं ब्राह्मण और कहां वो ठाकुर। किसी के यहां खा-पी नहीं सकता था मैं। उसको निभाते हुए इतना माना। मैं कोई महापुरुष नहीं था। पर उनके साथ रहकर इतना जाना कि कवि की भी इज्जत होती है। कर्पूरी जी सारी जिन्दगी मुझे काफी मान-सम्मान देते रहे।' खैर, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री पर इस सांस्कृतिक राजधानी को हर समय नाज रहा है, अब भी नाज है और हमेशा रहेगा।

प्रस्‍तुति - एम. अखलाक

(यह खबर दैनिक जागरण में पेज वन पर बाटम छप चुकी है।)

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

बदनाम बस्ती भी बन गई 'हस्ती'

स्मृति शेष : अब न होगा कोई दूजा जानकीवल्लभ सूरज एक है, चंदा एक है, जमीं व आसमां एक हैं। हम चाहें लाख इन जैसा कुछ और बना डालें, मगर इनका कोई और विकल्प नहीं हो सकता। आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री पर भी कुछ यही बातें अक्षरश: लागू होती हैं। उनके विराट व्यक्तित्व के आगे बहुत कुछ बौना दिखता है। महज गीत, कविता लेखन और पशु प्रेम तक ही वे नहीं सिमटे थे। कुछ और भी थे, जिसे महसूस करने की जरूरत है। आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री पहली ऐसी शख्सियत रहे हैं जिन्होंने अपना आशियाना देश की टॉप टेन बदनाम बस्तियों में शुमार मुजफ्फरपुर की तवायफ मंडी यानी चतुर्भुज स्थान में बसाया। काली कोठरी में सपरिवार रहते हुए भी उनका दामन हमेशा पाक रहा। महाकवि की यह इच्छाशक्ति यों ही नहीं थी। उसमें एक मैसेज था। समाज के लिए। लोगों के लिए। वंचितों, पीडि़तों को स्वीकार करने का आग्रह था। उन्हें समझने, महसूस करने और बदलने की अपील थी। तभी तो महाप्राण निराला से लेकर हरिवंश राय बच्चन तक बेझिझक उनके आशियाने में आया करते थे। लेकिन कभी किसी ने महाकवि से ठौर बदलने की गुजारिश नहीं की। हां, शहर के लोग भले ही तवायफ मंडी के नाम पर बिचकते रहे हों, आचार्यश्री के बहाने निराला निकेतन जाने में उन्हें कभी परेशानी महसूस नहीं हुई। आचार्य श्री ने वंचितों की बस्ती को अपना नाम दिया। आज भी उस बस्ती में रहने वाले चतुर्भुज स्थान या तवायफ मंडी की जगह आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री पथ लिखा करते हैं। स्कूल में बच्चों के दाखिले के दौरान भी यही पता होता है। मंडी आज भी कायम है। तवायफें अब भी मौजूद हैं। लेकिन इलाका आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के नाम से जाना-पहचाना जाता है। एक और घटना 2002 की है। तब यहां तवायफ मंडी की रानी बेगम पहली बार वार्ड पार्षद चुनी गई थीं। मंडी के लोगों में उत्साह देखते ही बनता था। मीडिया मंडी की ओर भाग रहा था। आचार्य श्री ने फिर एक अनूठी पहल की, जिसमें वंचितों को गले लगाने का संदेश था। उन्होंने उसी निराला निकेतन में रानी बेगम को चांदी का मुकुट पहनाकर सम्मानित किया, जहां किसी जमाने में पृथ्वीराज कपूर, रामवृक्ष बेनीपुरी जैसे दर्जनों हस्तियां आचार्यश्री का आतिथ्य स्वीकार किया करते थे। क्या सचमुच कोई और ऐसा कर सकता है? किया किसी ने कभी ऐसा किया है? क्या हममें वो जज्बा है? जवाब ढूढ़ेंगे तो सिर्फ आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री ही नजर आएंगे। बेशक कहने में कोई गुरेज नहीं कि अब न होगा दूजा जानकीवल्लभ। - एम. अखलाक (यह रपट दैनिक जागरण, मुजफ्फरपुर में बाटम छप चुकी है।)