सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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रविवार, 15 मई 2011

पानी पर नीतीश का 'जजिया कर'

विपक्ष विहीन बिहार में मिस्‍टर सुशासन उर्फ मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार की जनविरोधी नीतियां अब एक-एक कर जनता के सामने आने लगी हैं। पहले बिजली के बाजारीकरण का खेल शुरू हुआ। खेल खत्‍म होने से पहले ही पानी के बाजारीकरण का खेल भी शुरू हो गया है। पक्‍की खबर है कि सूबे में अब लोगों को अपनी जमीन से पीने के लिए पानी निकालने पर नीतीश सरकार को 'जजिया कर' (टैक्‍स) देना होगा। यही नहीं जो जितना अधिक पानी यूज करेगा उसे उतना ही अधिक टैक्‍स देना होगा। यानी पानी अब पराया गया है। जल पर जन का अधिकार नहीं होगा। वैसे मिस्‍टर सुशासन का तर्क है कि इससे भू-जल की बर्बादी नियंत्रित होगी। सूबे के सभी नगर निगमों और पंचायती राज संस्‍थाओं के पास इस बाबत तुगलकी फरमान भेज दिए गए हैं। कई जगह अखबार वालों ने 'गुड न्‍यूज' 'खास खबर' और जल संरक्षण की दिशा में राज्‍य सरकार द्वारा उठाए गए एक महत्‍वपूर्ण कदम जैसे भाव के साथ इस खबर को परोसा है। सूबे के किसी भी अखबार ने इसे जनविरोधी बताने की जुर्रत नहीं की है।
पहले ही बन गई थी रणनीति

करीब दो साल पहले बिहार विधानसभा में नीतीश कुमार की सरकार ने इस विधेयक को पास कराया था। तब किसी भी विपक्षी दल (राजद-लोजपा-वामदल) या विधायकों ने विरोध नहीं जताया था। अखबारों में भी छोटी-छोटी खबरें प्रकाशित हुई थीं। दरअसल, यह विधेयक कितना जनविरोधी है उस समय कोई ठीक से समझ ही नहीं पाया। और भला समझता भी कैसे ? उसके लिए दिमाग जो चाहिए। खैर, बिहार में अक्‍सर ऐसा होता आया है कि विधेयक पारित होते समय विधानमंडल में कोई प्रतिरोध नहीं होता। जब विधेयक लागू होने की बारी आती है तो जनता और पार्टियां सड़क पर उतरने लगती हैं। शायद इस बार भी ऐसा ही होता, लेकिन आसार नहीं दिख रहे हैं। क्‍योंकि इस बार तो विपक्ष सिरे से ही गायब है। आखिर मुंह खोलेगा कौन ? मीडिया से तो उम्‍मीद ही बेमानी है। वह तो मुख्‍यमंत्री के मुखपत्र की भूमिका निभा रहा है। मुझे अच्‍छी तरह याद है जब विधेयक पास हुआ था तो मैंने मुजफ्फरपुर में भाकपा माले के कुछ साथियों से विरोध जताने की अपील की थी, लेकिन उन्‍होंने भी गंभीरता से नहीं लिया।
किसने दिखाई नीतीश को राह

यों तो देश में पानी के बाजारीकरण का खेल वर्ष 1990-91 में नई अर्थव्‍यवस्‍था को अपनाने के साथ ही शुरू हो गई थी। लेकिन बिहार में यह नीतीश कुमार के शासनकाल से दिखाई दे रहा है। मुख्‍यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार कुमार वर्ल्‍ड बैंक के एजेंट की भूमिका निभाने लगे हैं। ठीक उसी तरह जैसे आंध्र प्रदेश में कभी चंद्रबाबू नायडू निभाया करते थे। उन्‍होंने भी अपने यहां भू-जल पर टैक्‍स लगा रखा है। ऐसे में भला नीतीश कुमार पीछे कैसे रह सकते थे। इन्‍होंने भी आंध्र प्रदेश का माडल बिहार में चुपके चुपके लांच कर दिया।
क्‍यों जरूरी है नीतीश का विरोध

नीतीश कुमार के विकास का माडल हर तरह से वर्ल्‍ड बैंक को मालदार बनाने वाला है। पूंजीपतियों व विदेशी कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाला है। आम आदमी को इससे कोई फायदा नहीं होगा। करीब 20-25 वर्षों के बाद बिहार का हर आदमी अप्रत्‍यक्ष रूप से वर्ल्‍ड बैंक को कर्जा चुकाते नजर आएगा। इतना ही नहीं सूबे के गरीब और गरीब हो जायेंगे। बुनियादी संसाधनों पर से उनका हक धीरे-धीरे छिन जाएगा। जल, जंगल और जमीन जैसी जन-जायदाद पर वर्ल्‍ड बैंक गिद्ध की तरह नजर गड़ाए हुए है। अगर नीतीश जैसे एजेंटों का विरोध नहीं हुआ तो देश गुलाम हो जाएगा।
- एम. अखलाक

बुधवार, 11 मई 2011

नीतीश, बिजली, बवाल और सच

बिजली संकट को लेकर इन दिनों बिहार में घमासान छिड़ा है। चहुंओर। बस नजर घुमाइए दिख जाएगा। क्‍या यह घमासान प्रायोजित है ? आपने इस दिशा में सोचने की पहल की ? आइए, आपको कुछ बातें याद दिलाते हैं, शायद इससे तस्‍वीर साफ हो जाए।

बात नंबर एक - बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार हर दिन केन्‍द्र की मनमोहन सरकार को कोस रहे हैं। केन्‍द्र भी सफाई दे रहा है। यानी आरोप - प्रत्‍यारोप का दौर जारी है। जनता भी इसे चाव से पसंद कर रही है। अखबार इस बात के सुबूत हैं। हर दिन खबरें छपने का मतलब है, खबर बिक रही है। और बिकने का मतलब है खरीदने वाली जनता पसंद कर रही है। तो भइया, असल बात यह है कि राज्‍य और केन्‍द्र के बीच चल रहे इस घमासान की जमीन विधानसभा चुनाव के दौरान ही तैयार हो गई थी। चुनावी सभाओं में नीतीश कुमार चिल्‍ला-चिल्‍ला कर कह रहे थे- अब बिजली के क्षेत्र में काम करना है। चुनाव खत्‍म हुआ। जीत का सेहरा बंध गया। काम करने का समय आ गया है। सो, बिजली मुद्दे को लेकर उनकी सियासत शुरू हो गई है। यह कब तक चलती रहेगी, सही-सही जवाब मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार ही दे पाएंगे।

बात नंबर दो - बिजली की किल्‍लत लालू-राबड़ी के राजपाठ में सबसे अधिक थी। क्‍योंकि तब सुशासन नहीं जंगल राज था, जैसा कि नीतीश कुमार कहते हैं। 'साधु' शेर बनकर जंगल में मंगल मनाया रहे थे। सूबे में नीतीश कुमार की सरकार बनने के बाद सुशासन आ गया। यही नहीं पांच साल में ही हालत भी तेजी से सुधर गए। लगभग सबकुछ दुरुस्‍त होता दिख रहा है। लेकिन बिजली को लेकर सुशासन में अचनाक बवाल मच गया। जनता हर जिले में, हर गांव में, हर टोला-मुहल्‍ला में टायर जलाकर, लाठी-डंडा लेकर विरोध प्रदर्शन करने लगी। बिजली दो, बिजली दो... के नारे लगा रही है। अखबरों में फोटोयुक्‍त खबरें छप रही हैं। अब सवाल उठता है कि जनता क्‍या सचमुच जागरूक हो गई है ? यदि जवाब हां है तो तब जनता इस कदर विरोध क्‍यों नहीं कर रही थी ? अखबार वाले इस कदर खबरें क्‍यों नहीं छाप रहे थे ? अचानक सबकुछ जागरूक कैसे हो गया ? क्‍या जनता और मीडिया पर नीतीश का कोई मंत्र काम कर रहा है ?

हकीकत क्‍या है - दरअसल, मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार का विकास माडल वर्ल्‍ड बैंक पोशक है। राज्‍य सरकार सबकुछ निजी हाथों में सौंपने के लिए आतुर है। इसी क्रम में सूबे में बिजली के बाजारीकरण की तैयारी पूरी हो चुकी है। प्रथम चरण में पटना, मुजफ्फरपुर और भागलपुर में बिजली को निजी हाथों में देने की योजना है। संभव है कुछ ही महीनों में यह खबर सामने आ भी जाए। नीतीश कुमार को अच्‍छी तरह पता है कि बिजली के बाजारीकरण का विरोध होगा। उनके लोक कल्‍याणकारी राज्‍य की छवि प्रभावित हो सकती है। इससे बचने के लिए उन्‍होंने खास रणनीति बनाई है। जिसके तहत जदयू कार्यकर्ता जगह-जगह जनता को विरोध प्रदर्शन के लिए उकसा रहे हैं। अगर आप गौर फरमाएं तो इन विरोध प्रदर्शनों में कहीं भी मुख्‍यमंत्री का पुतला दहन नहीं हो रहा है। टारगेट कोई और होता है। इतना ही नहीं नीतीश कुमार के इशारे पर नाचने वाले सूबे के अखबारों ने भी ऐसी खबरों को प्रमुखता से स्‍थान देने की हिदायत अपने रिपोर्टरों को दे रखी है। दरअसल, मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार आने वाले दिनों में यह कहकर बिजली को निजी हाथों में सौंपना चाह रहे हैं कि जनता को इससे राहत मिलेगी। जनता लगातार बिजली की मांग कर रही थी, सो उन्‍होंने ऐसा कदम मजबूरी में उठाया। केन्‍द्र ने उनकी कोई मदद नहीं की। आदि आदि। यानी कुल मिलाकर बिजली के बाजारीकरण का खेल चल रहा है।

- एम. अखलाक