सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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बुधवार, 5 जून 2013

महिला शौचालय के लिए तरसे बापू के गांव

पंचायतीराज और महिलाएं- 4
समुचित विकास के लिए जेंडर बजट बनाने वाले बिहार में लैंगिक असमानता चरम पर है। शहर से गांव तक स्‍थिति बेहद खराब है। अगर सियासी भागीदारी की बात छोड़ दें तो महिलाओं को पुरुषों के बराबर कई क्षेत्रों में संसाधन और अवसर नहीं मिल रहे हैं। यह हालत तब है जबकि पंचायतों में 50 फीसद, पुलिस में 35 फीसद और सहकारी संस्‍थाओं में 50 फीसद महिला आरक्षण का राज्‍य सरकार ने प्रावधान कर रखा है। उदाहरण के तौर पर पंचायतीराज व्‍यवस्‍था से जुड़ी महिलाओं की एक गंभीर समस्‍या पर नजर दौड़ाई जाए तो लैंगिक असमानता की भयावह तस्‍वीर दिखती है। पंचायतों, नगर पंचायतों, प्रखंड कार्यालयों और जिला मुख्‍यालयों में 'महिला शौचालय' जैसी बुनियादी सुविधा भी उपलब्‍ध नहीं है। महिलाओं को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।
क्‍या है गांवों की तस्‍वीर
आइए, आपको मुजफ्फरपुर जिले की कुछ तस्‍वीरें दिखाते हैं। ऐसी तस्‍वीरें सूबे के तमाम जिलों में दिख जाएंगी। गायघाट प्रखंड की बलौरनिधि पंचायत की मुखिया हैं पुनीता देवी। इनसे पहले मुखिया थीं शोभा देवी। इस पंचायत पर महिलाओं का कब्‍जा रहा है। लेकिन पंचायत भवन परिसर तथा उसके आसपास कोई महिला शौचालय नहीं है। इसी प्रखंड की लदौर पंचायत के मुखिया हैं दीपक कुमार झा। उनकी पंचायत में चार महिला वार्ड सदस्‍य, एक महिला विकास मित्र और एक महिला पंचायत समिति सदस्‍य हैं। लेकिन इन महिला जनप्रतिनिधियों के लिए यहां भी महिला शौचालय नदारद है। इतना ही नहीं गायघाट प्रखंड मुख्‍यालय का भी यही हाल है। साहेबगंज प्रखंड की विशुनपुर कल्‍याण पंचायत की मुखिया रंभा देवी, अहियापुर पंचायत की मुखिया गायत्री देवी, बासदेवपुर सराय की मुखिया मीना देवी और राजेपुर की मुखिया कबूतरी देवी कहती हैं कि प्रखंड क्षेत्र में 21 ग्राम पंचायतें हैं। किसी भी पंचायत में महिला शौचालय की व्‍यवस्‍था नहीं है। इस प्रखंड में एक नगर पंचायत भी है। यहां की मुख्‍य पार्षद किरण देवी हैं। बताती हैं कि यहां पुरुषों के लिए दो शौचालय बनाए गए हैं,  लेकिन महिलाओं के लिए एक भी नहीं। औराई प्रखंड की अतरार पंचायत की मुखिया अंजू देवी और घनश्‍यामपुर की मुखिया मंजू देवी कहती हैं कि पंचायतों की बात तो दूर प्रखंड मुख्‍यालय में भी महिला शौचालय की व्‍यवस्‍था नहीं है। जब जरूरत पड़ती है तो महिलाएं आसपास के घरों में या दूर झाड़ियों में चली जाती हैं। कुढ़नी प्रखंड की दरियापुर कफेन के मुखिया रामेश्‍वर महतो के अनुसार, पंचायत में छह महिला जनप्रतिनिधि हैं। चूंकि किसी पंचायत में महिलाओं के लिए अलग शौचालय की व्‍यवस्‍था नहीं है, इसलिए यहां भी नहीं है। प्रमुख संघ के नेता सह सकरा प्रखंड के प्रमुख श्‍याम कल्‍याण कहते हैं कि सार्वजनिक स्‍थानों पर महिला शौचालय का नहीं होना अमानवीय पहलू है। यह मानवाधिकार का उल्‍लंघन भी है। पंचायतों और प्रखंडों की बात तो दूर जिले के किसी भी सरकारी कार्यालयों में महिला शौचालय की व्‍यवस्‍था नहीं है। इस समस्‍या का निदान खुद पंचायतों और नगर पंचायतों को करना चाहिए। वैसे, प्रमुख संघ भी इसे आंदोलन का मुद्दा बनाएगा।

निर्मल ग्राम का भी बुरा हाल
चौंकाने वाली बात यह है कि जिन पंचायतों को निर्मल ग्राम का पुरस्‍कार मिल चुका है, वहां भी महिला शौचालय नहीं बने हैं। कांटी व मड़वन प्रखंड की महिलाओं ने पिछले साल प्रखंड विकास पदाधिकारियों का घेराव किया था। उनका आरोप था कि प्रखंड क्षेत्र में कहीं भी महिला शौचालय नहीं है। जबकि प्रखंड विकास पदाधिकारियों का कहना था कि शौचालय बनने के बाद ही पंचायतों को निर्मल ग्राम का पुरस्‍कार मिला है। खैर, महिलाओं के आंदोलन के बाद मुखियों पर कार्रवाई भी हुई। स्‍वयंसेवी संस्‍था निर्देश की परियोजना पदाधिकारी रंभा सिंह कहती हैं कि महिला शौचालय निर्माण के प्रति प्रशासन और पंचायत प्रतिनिधियों का गंभीर नहीं होना इस बात का सुबूत है कि लैंगिक असमानता चरम पर है। इस समस्‍या को जड़ से खत्‍म करना होगा, तभी समाज का समुचित विकास हो पाएगा।
पंचायतों को करनी होगी पहल
दरअसल, स्वस्थ समाज के लिए लैंगिक समानता जरूरी है। स्त्री और पुरुष के देहगत विभेद से ऊपर उठने के बाद ही स्वस्थ-समतामूलक समाज का निर्माण किया जा सकता है। यह बात ध्यान रखनी होगी कि लैंगिक समानता तथा संवेदनशीलता की गारंटी केवल पंचायतीराज व्‍यवस्‍था में महिलाओं की भागीदारी और उनकी संख्या से नहीं मिल सकती। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि पंचायतीराज व्‍यवस्‍था लैंगिक संवेदनशीलता तथा उसकी नीतियों और संरचना के महत्व को कितना समझती हैं। महिला समाख्‍या सोसाइटी की जिला समन्‍वयक पूनम कुमारी कहती हैं कि पंचायतों को रणनीति बनाकर अपने यहां महिला शौचालय का निर्माण कराना चाहिए। खासकर जहां महिला मुखिया हैं उन्‍हें उदाहरण पेश करने की जरूरत है। इससे अन्‍य पंचायतें भी प्रेरणा लेंगी और हालात बदलेंगे। जिला परिषद की पूर्व अध्‍यक्ष किरण देवी कहती हैं, '' बिहार में लैंगिक असमानता एक गंभीर समस्‍या है। हर स्‍तर पर महिलाएं सुविधा और अवसर से वंचित हैं। राज्‍य सरकार समस्‍या के निदान के लिए ठोस कार्ययोजना बनाए। उसे पंचायतों की मदद से जमीन पर उतारे। साथ ही, प्रबुद्धजन इस असमानता को खत्‍म करने के लिए आगे आएं। महिला शौचालय सिर्फ महिला जनप्रतिनिधियों की ही नहीं, बल्‍िक  सभी महिलाओं की जरूरत है। यही नहीं ऐसी कई बुनियादी जरूरतें हैं जिनके लिए महिलाएं तरस रही हैं।
रिपोर्ट - एम. अखलाक

सोमवार, 3 जून 2013

एजेंडे से गायब ‘महिलाओं की सेहत’


पंचायतीराज और महिलाएं - 3
'‘यदि गांव की कोई महिला माहवारी से है तो उसे चार-पांच दिन एक अलग कमरे में रहना पड़ेगा। उन दिनों चाहकर भी स्नान नहीं कर सकती है। खाना नहीं बना सकती। यदि बनाएगी तो कोई खाएगा नहीं। परिवार में यदि कोई शुभ कार्य प्रस्तावित है और उसी बीच माहवारी की संभावना बन जाए तो दवा खाकर माहवारी को टालना उसकी मजबूरी है। चाहे सेहत भाड़ में जाए। ऐसा नहीं करने पर वह किसी भी शुभ कार्य में शामिल नहीं हो सकती। इसी तरह माहवारी के दिनों में गांव की लड़कियां स्कूल नहीं जाती हैं।’'
यह कड़वी सच्चाई है तेजी से बदल रहे बिहार के गांवों की। हर गांव में ऐसे मामले मिल जाएंगे। सुदूर गांवों की तो स्थिति और भी भयावह है। दरअसल, ग्रामीण महिलाओं की सेहत का सवाल अब भी पंचायतीराज व्यवस्था का अहम एजेंडा नहीं बन पाया है। तमाम पंचायतें सिर्फ सड़क, पानी, भवन निर्माण, मिड-डे मील, आंगनबाड़ी, इंदिरा आवास, बीपीएल सूची, पेंशन वितरण आदि योजनाओं तक सिमट कर रह गई हैं। जिन पंचायतों का नेतृत्व खुद महिलाएं कर रही हैं, वहां भी यह सवाल एजेंडे से गायब है। 
गैर सरकारी संगठन ‘प्लान इंडिया’ और कुछ वेबसाइटों की रिपोर्ट पर यकीन करें तो देश में 70 फीसद ग्रामीण महिलाएं सैनेटरी नैपकिन की पहुंच से दूर हैं। इसमें बिहार की ग्रामीण महिलाएं भी शामिल हैं। गांव की महिलाओं और स्त्री रोग विशेषज्ञों के बीच देशभर में कराए गए सर्वे में पाया गया है कि माहवारी के दौरान देखरेख नहीं होने से ग्रामीण क्षेत्रें की किशोरियां कम से कम 50 दिन स्कूल नहीं जा पाती हैं। देश में माहवारी से गुजरने वाली 35-5 करोड़ महिलाओं में केवल 12 फीसदी महिलाएं ही सैनिटरी नैपकिनों का इस्तेमाल करती हैं।
मुजफ्फरपुर जिले की स्त्री रोग विशेषज्ञ डाक्टर ज्योति कहती हैं कि जागरुकता के अभाव में आज भी ग्रामीण महिलाएं माहवारी के समय गंदे कपड़े, मिट्टी और राऽ आदि इस्तेमाल करती हैं। कई महिलाएं तो एक ही कपड़े को बार-बार धोकर यूज करती हैं। इससे हमेशा संक्रमण का ऽतरा बना रहता है। यह उनकी प्रोडक्टिविटी पर भी बुरा असर डालता है। उन्हें यूट्रस संबंधी कई बीमारियों का शिकार बना देता है। हर दिन गंभीर बीमारियों से परेशान महिलाएं इलाज के लिए आती रहती हैं। जो महिलाएं दवाओं का सेवन कर माहवारी को रोकती हैं, पहले तो उनका मासिक चक्र अनियमित हो जाता है। उसके बाद शारीरिक समस्याएं बढ़ जाती हैं।
महिला समाख्या सोसाइटी की जिला कार्यक्रम समन्वयक पूनम कुमारी कहती हैं कि गांवों में महिलाओं की बड़ी आबादी सैनेटरी नैपकिन खरीदने में अक्षम है। यही वजह है कि किसी भी चीज से काम चला लेती हैं। इसका बुरा असर उनकी सेहत पर पड़ रहा है।
सरकार की योजना का लाभ उठाएं 

केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ग्रामीण महिलाओं को इस तरह की परेशानी से उबारने के लिए ‘वन रुपीज सेनेटरी नैपकिन’ नामक योजना चला रही है। इसके तहत ग्रामीण महिलाएं केवल एक रुपये में नैपकिन ऽरीद सकती हैं। इसके लिए उन्हें गांव के सरकारी अस्पतालों में जाने की भी जरूरत नहीं है। आशा कार्यकर्ता ही घूमघूम की एक रुपये कमीशन पर मुहैया कराती हैं। सरकार उन्हें छह सैनेटरी पैड का पैकेट पांच रुपये में उपलब्ध कराती है, जिसे वह छह रुपये में बेचती हैं। यह योजना बीस से अधिक राज्यों के जिलों में चल रही है। इसमें मुजफ्फरपुर जिला भी शामिल हैं।
क्या कर सकती हैं पंचायतें

  • माहवारी से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने के लिए गांवों में जागरूकता अभियान चला सकती है।
  • जागरूकता अभियान में स्वयं सहायता समूह, महिला संगठन, महिला जनप्रतिनिधि अहम रोल अदा कर सकते हैं।
  • आशा कार्यकर्ता नैपकिन बेचने में रूचि दिखा रही हैं या नहीं, इसकी पड़ताल वार्ड सदस्य करें। पंचायतों को इसकी रिपोर्ट दें।
  • आशा कार्यकर्ताओं के जरिए महिलाओं को माहवारी रोकने वाली दवा के कुप्रभाव की जानकारी दी जाए।
  • ग्रामीण क्षेत्र के स्कूल की शिक्षिकाओं की मदद से किशोरियों को जागरूक करने की रणनीति बनाई जाए।
  • ग्रामीण क्षेत्र की छोटी-बड़ी दुकानों पर सेनेटरी नैपकिन सहज तरीके से उपलब्ध कराया जाए।
  • इस पूरे अभियान को पंचायत संचालित करे, क्योंकि इस समस्या से सर्वाधिक गांव की महिलाएं प्रभावित हैं।
रिपोर्ट - एम. अखलाक

दो कदम तो चले हैं, अभी सफर बाकी है

पंचायतीराज और महिलाएं - 2
 
वैश्वीकरण के साथ कदमताल करता बिहार, रफ्ता रफ्ता बदलता बिहार, अब पंचायतीराज व्यवस्था के चौथे चरण की ओर कदम बढ़ा चुका है। तीन साल बाद यानी वर्ष 2016 में चुनाव होंगे। पिछले तीन चुनावों के बाद ग्राम सरकारों की तस्वीरें हमारे सामने हैं। तस्वीरें कई सवाल खड़े कर रही हैं। कई सुझाव भी दे रही हैं। तस्वीरें आईना भी दिखा रही हैं। समीक्षा करने के लिए प्रेरित भी कर रही हैं। समीक्षा से ही हालात और बेहतर होगा।
इसमें कोई दो राय नहीं कि बिहार के सभी जिलों में पंचायतीराज व्यवस्था अपने तीन पंचवर्षीय सफर के दौरान ग्रामीण विकास योजनाओं में लूट-भ्रष्टाचार और अक्षम महिला नेतृत्वों के कारण सवालों के घेरे में रहा है। मुखिया, पंचायत समिति सदस्य, पंच, सरपंच और जिला परिषद सदस्यों पर तरह-तरह के रिश्वतखोरी के आरोप लगते रहे हैं। इंदिरा आवास हो, सोलर लाइट हो या शिक्षक नियोजन तमाम योजनाएं जनप्रतिनिधियों के लिए दुधारू गाय साबित होती रही हैं। यही नहीं महिला जनप्रतिनिधियों की आड़ में पुरूष सत्ता संभालते रहे हैं। बैठकों में महिला जनप्रतिनिधियों के पतियों का जाना आम बात है। गांवों में तो मुखिया के पति संक्षेप में एमपी कहलाने लगे हैं।
लेकिन, इन तमाम बुराइयों और खामियों के बावजूद एक सकारात्मक पक्ष भी है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। कई ऐसी महिला जनप्रतिनिधि भी हैं जो विषम परिस्थितियों में बेहतर काम कर रही हैं। सरकारी बैठकों में खुद फैसले ले रही हैं। योजनाओं को समझ रही हैं, उसे जमीन पर सही तरीके से उतार रही हैं। गांवों में अंधविश्वास और रूढ़ियों के खिलाफ जंग लड़ रही हैं। वह घर के पुरूषों की छायाप्रति नहीं हैं। समाज के सामने उदाहरण पेश कर प्रेरणास्रोत बन रही हैं। ऐसी महिलाएं बिहार के सभी जिलों में मिल जाएंगी। आए दिन अखबारों में खबर की शक्ल में दिखाई भी पड़ती हैं। मुजफ्फरपुर जिले के तीन उदाहरण गौर करने लायक हैं।
बंदरा प्रखंड की शिवराहां मझौलिया पंचायत की चंद्रकला देवी अनुसूचित जाति से आती हैं। नेतृत्व क्षमता और जमीनीस्तर पर काम करने के कारण तीन बार मुखिया चुनी जा चुकी हैं। हर कोई उनके नेतृत्व क्षमता का कायल है। सरकारी कामकाज में पति का कोई हस्तक्षेप नहीं है। योजनाओं की जानकारी जुबान पर रहती है। पूछिए तो फटाफट बता देंगी। मुखिया बनने से पहले गांव में गरीब बच्चियों को शिक्षा दान करती थीं। आज पंचायतीराज व्यवस्था की बागडोर संभालने के साथ-साथ कई जनसंगठनों से जुड़कर महिला हिंसा रोकने, सबको शिक्षित करने, स्वास्थ्य जागरूकता, आर्थिक स्वावलंबन आदि के लिए भी काम कर रही हैं। चंद्रकला एक कुशल नेतृत्व की जिंदा मिसाल हैं।
शिवराहां मझौलिया पंचायत की एक और रोचक घटना महिलाओं के जागरूक होने की कहानी बयां कर रही है। कृष्णा देवी और बेबी देवी में गहरी दोस्ती थी। कृष्णा पंचायत समिति सदस्य चुनी गईं। इसके बाद उनके बेटे ने दलाली शुरू कर दी। कृष्णा की नीयत भी बदलती गई। जब दोबारा चुनाव आया तो गांव की महिलाओं ने बैठकर कृष्णा देवी की आलोचना की। इतना ही नहीं बेबी देवी को अपना उम्मीदवार बना डाला। अंततः बेबी देवी चुनाव जीतकर पंचायत समिति सदस्य बन गईं। बेबी देवी के कामकाज से लोग संतुष्ट हैं। वह इलाके में बेहतर काम कर रही हैं। यह वाक्या ग्रामीण महिलाओं में आ रही जागरूकता की ओर इशारा है।
तीसरा उदाहरण और भी दिलचस्प है। मुशहरी प्रखंड की रजवाड़ा पंचायत की सावित्री देवी बेहद गरीब परिवार से आती हैं। वह कहती हैं कि पंचायत चुनाव लड़ने की बात सोच भी नहीं सकती थी, लेकिन गांव-समाज के दबाव में आकर चुनाव मैदान में उतर गई। निर्विरोध पंच चुनी गई। जब पुनः चुनाव आया तो विरोध में एक और महिला खड़ी हो गई। मेरे मन में सवाल उठने लगा कि जब खुद लड़ना नहीं चाहती थी तो गांव वालों ने न सिर्फ चुनाव लड़ाया बल्कि निर्विरोध जीत का सेहरा भी बांधा दिया। आखिर क्या चूक हुई कि जब स्वयं चुनाव लड़ना चाहती हूं तो अन्य प्रत्याशी भी मैदान में आकर डट गए ? सावित्री ने तय किया कि क्षेत्र में किए गए काम के आधार वोट मांगेगी और सिर्फ एक दिन घूमकर चुनाव प्रचार करेगी। उसने ऐसा ही किया। और सावित्री पचास मतों से दोबारा चुनाव जीत गईं। सावित्री कहती हैं कि ईमानदारी से अगर काम करो तो जनता इनाम जरूर देती हैं।
ये उदाहरण इशारा करते हैं कि पंचायतीराज व्यवस्था के भीतर तेजी से बदलाव की प्रक्रिया जारी है। हताश और निराश होने की जरूरत नहीं है। 50 फीसद महिला आरक्षण बेमानी साबित नहीं होगा। तेजी से समाज बदलने के कारण महिलाओं के प्रति नजरिया भी बदल रहा है। अब घर से हर समुदाय की महिलाएं निकलने लगी हैं। जनता के दबाव और आलोचनाओं के कारण कई जगह सरकारी बैठकों में एमपी (मुखिया पति) की दाल नहीं गल रही है। हां, यदि पंचायती राज व्यवस्था जनता को प्रत्यक्ष शासन की ओर ले जाने वाला महत्वपूर्ण कदम है तो यह कदम तभी सार्थक होगा जब जनता अपने आसपास के विकास कार्यों में अपने ही गांव जवार के प्रतिनिधियों द्वारा की जा रही प्रत्यक्ष बेईमानी को देखेगी और तत्क्षण उसका संगठित विरोध करेगी। जनता में इस प्रकार की चेतना के विकास से ही पंचायती राज व्यवस्था की जड़ें मजबूत होंगी।
 
 
''पिछले तीन पंचायत चुनावों का असर अब गांव-समाज में दिखने लगा है। खासकर गांव की महिलाओं की दुनिया तेजी से बदल रही है। 50 फीसद महिला आरक्षण की भूमिका भी अहम रही है। हां, भ्रष्टाचार के मामलों में भी महिला जनप्रतिनिधियों के नाम बहुत कम सामने आए हैं। यह अच्छी बात है।'' - रानी कुमारी, सरपंच, सरहंचिया, औराई
 
- रिपोर्ट - एम. अखलाक