सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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गुरुवार, 4 जून 2009

हेलन से मिलने को बेताब हमीदन

रुपहले फिल्मी पर्दे के खलनायक अजीत की मोना डार्लिंग और कभी जवां दिलों की धड़कन रहीं हेलन को भले ही अपनी जन्मभूमि याद हो या न हो, लेकिन उनकी बड़ी बहन 75 वर्षीय हमीदन की आंखें उनसे मिलने के लिए वर्षों से बेकरार है। झुर्रियों भरे चेहरे पर मोटे काले फ्रेम का चश्मा लगाये दुबली-पतली, छोटे कद-काठी की गोरे रंगतवाली हमीदन अपनी बहन को याद कर तड़प उठती है। बात करते करते बचपन की यादों में खो जाती हैं और फफक कर रो पड़ती हैं। भितिहरवा के समीप श्रीरामपुर गांव में जन्मी तीन सगी बहनें खतुलिया, हमीदन और ईदन एक-एक कर जुदा होती गयीं। सबसे बड़ी बहन खतुलिया अब इस दुनिया में नहीं रही। दूसरी हमीदन के पांव भी कब्र में लटके हैं। और सबसे छोटी ईदन यानी हेलन फिल्मी दुनिया की चकाचौंध में इस कदर खो गयी कि अपने लोगों को ही भुला बैठी। बकौल हमीदन 'मिल जइहें त भेंट करेब आ अपना घरे चल आयब। उहो अपना घरे चल जइहें। बस एक बार खाली मिले के चाहतानी।' पिछले दिनों एक अखबार में चंपारण महोत्सव की खबर छपी थी जिसमें आयोजकों ने हेलेन को बुलाने की बात कही थी। यह खबर पढऩे के बाद हमीदन अपने बड़े बेटे के साथ अखबार के नरकटियागंज कार्यालय पहुंचीं। उनका बस एक ही सवाल था कि 'बबुआ हमार बहिन आवेवाला बाड़ी। कब तक अइहे?' शिकारपुर थाना क्षेत्र के मुजौना गांव निवासी हमीदन के चार बेटे और तीन बेटियां हैं। सभी की शादी हो चुकी है। नाती-पोतों से घर भरा है। बड़े लड़के का नाम अली हसन अंसारी है। उम्र करीब 45 वर्ष है। शहर के वार्ड नंबर 9 में भी इनका एक मकान है। परिवार खेती पर निर्भर है। खेती-बारी की वजह से परिवार के सदस्य मुजौना गांव में भी रहते हैं। अली हसन की मानें तो उनकी मां हमीदन ने कई बार अपनी बहन हेलन से मिलने के लिए मुंबई ले चलने की बात कही, लेकिन वे नहीं जा सके। उन्हें इस बात का डर है कि जाने पर पता नहीं कोई पहचान पायेगा या नहीं। यह पूछने पर कि अचानक कैसे आ गयी छोटी खाला की याद, अली हसन कहते हैं 'बेतिया में होने वाले चंपारण महोत्सव की खबर अखबार में पढ़ा। इसमें हेलेन के आने की जानकारी दी गयी थी। इसकी चर्चा घर में होने पर मां परेशान करने लगी। नहीं मानी। कहा ले चलो मुझे अखबार वाले के पास...।' बहरहाल, हमीदन बचपन की यादों में खो जाती हैं और बताती हैं- तब के समय में हैजा से गांव का गांव साफ हो जाता था। इसी बीमारी से पिता फेंकू मियां और माता बुधिया की मौत हो गयी। तब तीनों बहनों की उम्र सात से दस के बीच थी। दो भाई भी थे। कुल पांच भाई-बहनों का गुजारा बिना मां-बाप के सहज नहीं था। तब मामा कोलाई मियां ने बहुत मदद की। तीनों बहनों के साथ दोनों भाइयों को अपने गांव पचरुखिया ले गये। खतुलिया की वहीं बीमारी से मौत हो गयी। इसी बीच भाभी भी हैजा से अल्लाह को प्यारी हो गयीं। तब कोलाई मियां ने ईदन को चनपटिया थाना क्षेत्र के चूहड़ी गांव स्थित मिशन में डाल दिया। ईदनी वहीं रहने लगी। कुछ साल बीते तभी मामा का भी इंतकाल हो गया। अब इस परिवार में दो भाई बेचू व शमशुद्दीन तथा एक बहन हमीदन यहां रह गये। भाई लोग तबतक कुछ समझदार हो गये थे। भाइयों ने मिलकर हमीदन का निकाह कर दिया, लेकिन कभी ईदन की कोई खोज-खबर नहीं ली गयी।' इतना सुनाते-सुनाते हमीदन फफक कर रो पड़ती हैं। वह चुप्पी तोड़ती हैं और पुन: कहती हैं- 'सात गो चि_ी भेजले रहे श्रीरामपुर। लेकिन लोग डेरा गइल कि ई कहां से कागज आईल बा। वो घड़ी लोग पढ़ल-लिखल ना रहे। चि_ी लुका देहलस लोग।' कई साल बाद मालूम हुआ कि चि_ियां ईदन यानी हेलेन ने ही भेजे थे। दरअसल, तब इस परिवार के लोगों ने यह समझा था कि मिशन वाले बच्ची की परवरिश के बदले कुछ खर्च वगैरह नहीं मांग बैठें। इस भय से कोई उससे मिलने नहीं गया। अब यह अलग सवाल है कि चुहड़ी से ईदन कैसे मुंबई पहुंची और फिल्मी दुनिया में उसने कैसे कदम रखे। चुहड़ी मिशन के फादर माइकल और फादर पाल गोसेफ की माने तो उन्होंने भी ये बातें सुनी हैं। चुहड़ी के रहने वाले अवकाश प्राप्त शिक्षक अब्दुल सत्तार बताते हैं कि हेलेन यहीं अनाथालय में पली बढ़ी। उन्हें अब भी याद है कि जब यहां फिल्म खानदान लगी थी तो उसके एक गीत 'मिट्टी में मिल गयी मेरी जवानी...।' पर नृत्य करने वाली हेलेन को देखने के लिए लोग टूट पड़ते थे। चुहड़ी की बुजुर्ग महिला अगुस्तिना बैप्टिस्ट के अनुसार इस अनाथालय में दो बच्चियां ऐसी थीं जो नृत्य-गीत में कुछ अधिक ही रुचि रखती थीं। किसी भी कार्यक्रम में उनका बुलावा होता था। बाद में एक परिवार ने एक लड़की को अपनी बेटी बना लिया और मुंंबई चला गया। सच्चाई चाहे जो भी हो, एक बात जो सत्य है कि बड़ी हस्तियां अपनी जड़ों से कटती जा रही हैं। इसी कड़ी में हेलेन भी शामिल हैं। हमीदन के अनुसार अब उस पीढ़ी में केवल दो ही लोग बचे हैं, हमीदन और ईदन। हेलन का नाम बचपन में ईदन क्यों पड़ा? इसके जवाब में हमीदन कहती हैं कि उसका जन्म ईद के दिन हुआ था। आश्चर्य की बात यह है कि जिसे दुनिया देखने को बेताब रहती थी उसे रुपहले पर्दे पर हमीदन ने कभी नहीं देखा है। (यह स्टोरी भोपाल से प्रकाशित मासिक पत्रिका राष्ट्रीय मंथन में छप चुकी है।)

रिपोर्ट- सुरेन्द्र त्रिवेदी, मुजफ्फरपुर से

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