सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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सोमवार, 25 अप्रैल 2011

ऐसे थे आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री

आचार्य श्री से जुड़े संस्मरण शहर के साहित्यकारों की जुबानी

भाषा में अशुद्धि बर्दाश्त नहीं थी -
गुरुदेव आचार्य प्रवर के सान्निध्य में रहकर छात्र जीवन से ही कविताएं लिखने लगा था। इस कारण उनके यहां आना जाना लगा रहता था। एक दिन सुबह नौ बजे कालेज जाने से पहले ही उनके दर्शनार्थ निराला निकेतन पहुंचा तो किसी ग्रामीण क्षेत्र से आए एक शिक्षक-कवि उन्हें लगातार अपनी कविताएं सुनाए जा रहे थे, घोर अशुद्धियों से भरी हुई। मगर विवश भाव से बिना कोई टिप्पणी किए आचार्य श्री उन्हें सुने जा रहे थे। मैं उन्हें प्रणाम कर ज्यों ही वहां बैठा, उन्होंने राहत की सांस ली। उन कवि महोदय से उन्होंने मेरा परिचय कराया और उन्हें कहा ये भी कवि-साहित्यकार हैं। बची हुई कविताएं इन्हें सुनाइए, मैं जरा गायों को चारा-पानी दे आऊं, भूखी होंगी बेचारी। आपकी कविताओं से तो उनका पेट नहीं भरेगा। यह घटना इस बात की पुष्टि करती है कि महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री को भाषा में अशुद्धि जरा भी बर्दाश्त नहीं थी।

- डा. शेखर शंकर, साहित्यकार


सिर्फ वर्तमान मुझमें जीता है -
महाकवि आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री हर स्थिति में वर्तमान के पल के साथ जीने के आदी थे। लगता ही नहीं था कि उनकी चेतना कभी अतीत में डूबकर वर्तमान का अनदेखी कर देगी। अभी-अभी की बात है, शास्त्री जी एसकेएमसीएच में अपनी धर्मसंगनी छाया देवी के साथ सघन चिकित्सा में चल रहे थे। परिवेश में हरकत थी। लोग सोचते थे, पता नहीं कब उनकी सांस की डोर ढीली पड़ जाए और उनकी चेतना चिरविस्मृति की चादर ओढ़कर शून्य में विलीन हो जाए। शायद ऐसा सोचकर ही कुछ लोग पारंपरिक संस्कार से वशीभूत हो चले थे। शास्त्री जी के अत्यंत निकट छाया की तरह निरंतर उनके पीछे डोलने वाले उनके साले जयमंगल मिश्र आइसीयू कक्ष में उनके साथ थे। इसी बीच मैं वहां पहुंचा। मुझे देखकर शास्त्री जी की बेचैनी स्निग्ध मुस्कान में परिणत हो गई। लेकिन होंठो पे शब्द आने से रहे। श्री मिश्र ने शास्त्री जी से पूछा, इन्हें पहचानते हैं आप? उत्तर मिला, इस तरह उटपटांग प्रश्न क्यों पूछते हो? ऐसा प्रश्न तो उनसे पूछा जाता है जो आखिरी सांस लेते हुए मृत्यु के आलिंगन के लिए विवश दिखाई देते हैं। मैं कोई विवश व्यक्ति नहीं हूं। पूरे रूप में वही हूं जिस रूप में दुनिया मुझे निरंतर देखती रही है। शायद तुम्हारे चले जाने के बाद उसी रूप में देखती रहेगी।

- डा.रामप्रवेश सिंह, हिन्दी विभागाध्यक्ष, बीआरए बीयू मुजफ्फरपुर


अपने वंश का अंतिम आदमी -
1990 के दशक की बात है। शास्त्री जी की बड़ी बहन मानवती मिश्रा बीमार थीं। उन दिनों मैं दलसिंह सराय कॉलेज का प्राचार्य था। शास्त्री जी के अत्यंत निकट होने तथा उन पर पहला शोध प्रबंध लिखने के कारण उनका मुझे स्नेह मिलता था। यही वजह थी कि बहन के बीमार होने पर उन्होंने मुझे सूचना देकर बुलाया। जब मैं निराला निकेतन आया तो संयोगवश बीमार मानवती मिश्रा कराहने लगीं। जोर-जोर से चिल्लाने लगीं। सहयोग के लिए वे दौड़कर वहां गए। मैं भी गया। बाद में उन्होंने सेवा के लिए दो आदमी भेजने को कहा। मैंने कॉलेज के दो चतुर्थ वर्गीय कर्मचारियों को निराला निकेतन में तैनात कर दिया। पर मानवती मिश्रा नहीं बच सकीं। उनका निधन हो गया। श्राद्ध में जब यहां आया तो बहुत साहित्यकार जुटे हुए थे। आंगन में पगड़ी बांधने का काम हुआ। तत्पश्चात वे एकाएक आंगन के बाहर पिताजी के मंदिर में आए और अपनी पगड़ी उतार उनके चरणों पर रख दिया- 'लीजिए पिताजी यह पगड़ी। मैं आपके वंश का अंतिम आदमी हूं।' और कुछ देर तक वहीं लेटे रहे। मौजूद लोग स्तब्ध!

- डा. आश नारायण शर्मा, सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य, मिथिला विवि, दरभंगा


पिता-पुत्र आमने सामने बैठते हों -
आचार्य श्री जहां बैठा करते थे उसके ठीक सामने उनके पिता की मूर्ति है। ऐसा लगता था मानों पिता और पुत्र आमने-सामने बैठे हों। मेरा घर बगल में है। सो, उनका सानिध्य मुझे बचपन से ही मिलता रहा। वे बिना पिता को भोग लगाए अन्न की थाली ग्रहण नहीं करते थे। कहते थे कि आज मैं जो भी हूं उन्हीं के कड़े अनुशासन का फल है। पिता ने मेरे कारण दूसरा विवाह नहीं किया। शास्त्री जी के ठीक पीछे नीम का एक पेड़ है। एक बार उस पर करैले की लतर चढ़ गई। वे आने-जाने वालो को दिखाकर कहा करते- 'देखो यह मेरा प्रतीक है। एक तो करैला, उस पर नीम चढ़ा।' गालिब की तरह अपना मजाक उड़ाने की क्षमता कम रचनाकारों में होती है। शास्त्री जी के व्यक्तित्व की यह एक खास पहलू थी। पांव की हड्डी टूटने पर वे कभी कभी खीज जाते। कहते, 'हे इश्वर, मैं अपने आसपास के इन कुछ मनुष्यों को बर्दाश्त नहीं कर पाता हूं। तुम सृष्टि के सारे मनुष्यों को कैसे बर्दाश्त करते होगे। सचमुच तुम महान हो।'

- डा. रश्मि रेखा, साहित्यकार


... इस तरह अपने हो गए शास्त्री जी -
1974 की बात है। आचार्य श्री भीखना पहाड़ी पटना में बेला पत्रिका छपवाया करते थे। हिन्दुस्तानी प्रेस के निकट ही एक मकान में आलोक धनवा रहते थे। मैं दिन के साढ़े दस बजे आलोक के साथ गपशप कर रहा था। इसी बीच नीचे से आवाज आई। आलोक जी हैं? मैंने कहा- ये तो शास्त्री जी की आवाज लगती है। आलोक नीचे गए और शास्त्री जी को लेकर ऊपर आए। मुझे देखकर शास्त्री जी ने अपनी सहज विनोदमयी मुद्रा में कहा- अरे, यह नास्तिक आपके यहां कैसे? आलोक ने कहा- नंदन जी हमारे सहज आत्मीय मित्रों में से एक हैं। उल्लेखनीय है कि गंगा में ऐसी बाढ़ आई थी कि पहलेजा होकर लौटना बंद हो गया था। हमलोगों ने मैटनी-शो में गुलजार निर्मित फिल्म मौसम देखने का प्रोग्राम बनाया। इसके बाद पटना से समस्तीपुर पैसेंजर से दोनों साथ लौटे। यात्रा के बाद हम दोनों न केवल रचनात्मक स्तर पर बल्कि मानवीय स्तर पर इतने गहरे आत्मीय हो गये कि हमारे सुख दुख और चिंताएं एक हो गई।

- नंद किशोर नंदन, साहित्यकार


हाय, तू भी मनुष्य हुआ चाहती हो -
एक बार की बात है। अपने कुत्ते और बिल्लयों से घिरे आचार्य श्री बैठे हुए थे। कई साहित्यकार और पत्रकार भी मौजूद थे। इसी बीच उनकी एक कुतिया बिल्ली पर झपट पड़ी। आचार्य श्री ने उसे डांटते हुए बड़े प्यार से कहा- हाय तू भी मनुष्य हुआ चाहती हो।

- डा. संजय पंकज, साहित्यकार


प्रस्तुति : एम. अखलाक

(ये संस्‍मरण दैनिक जागरण में प्रकाशित हो चुके हैं।)

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