सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

LATEST:


शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

बबुआ अइसे ना बदली बिहार हो

सांस्‍कृतिक विकास के बिना 'समुचित विकास' नहीं

बिहार में इन दिनों विकास की बात हो रही है। अच्‍छी बात है। लेकिन मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार के सरकारी एजेंडे से 'सांस्‍कृतिक विकास' की बात सिरे से गायब है। राज्‍य सरकार के करीब साढ़े पांच साल बीत चुके हैं। मुख्‍यमंत्री और विभागीय मंत्री की ओर से कला, संस्‍कृति और कलाकारों के बुनियादी विकास के लिए अबतक कोई घोषणा नहीं हुई है। सरकारी योजनाओं का स्‍वाद चखने वाले सूबे के नामचीन कलाकार भी खामोश हैं। जबकि गांवों में कलाकारों का एक बड़ा तबका हाशिए पर जी रहा है। उसके समक्ष रोटी, रोजगार और सम्‍मान का संकट है। कलाकारों की इस जमात में 90 फीसदी दलित, महादलित, पिछड़ा, अतिपिछड़ा जैसे वर्ग से ही आते हैं। महज दस फीसदी ही कलाकार ऐसे होंगे जो सवर्ण होंगे। इनमें कोई सुखी नहीं है। लोक गायन कर, भजन-कीर्तन गाकर, नाच दिखाकर, बैंड बजाकर, तमाशा दिखाकर, नाटक करके, चित्रकारी करके, बैनर-पोस्‍टर लिखकर समाज को सांस्‍कृतिक रूप से समृद्ध करने वाले इन कलाकारों के बच्‍चों, घर-बार, खान-पान, पहनावा आदि देखकर कोई भी उनकी स्‍थिति का अंदाजा लगा सकता है। हैरत करने वाली बात यह भी है कि सूबे की कोई भी पंचायत अपने स्‍थानीय कला-संस्‍कृति और कलाकारों के विकास के लिए काम नहीं कर रही है। जबकि पंचायती राज अधिनियम में साफ-साफ कहा गया है कि पंचायतें बिजली, पानी, सड़क की तरह ही सांस्‍कृतिक विकास के लिए भी योजनाएं बनाकर सरकार के पास भेजेंगी। इससे जाहिर होता है कि बिहार में राज्‍य सरकार से लेकर पंचायतीराज तक कलाकारों के बारे में सोंचने की पहल नहीं हो रही है। ऐसे में दो अहम सवाल उठते हैं। पहला- क्‍या इन कलाकारों के विकास के बिना बिहार में सांस्‍कृतिक विकास संभव है ? दूसरा- सांस्‍कृतिक विकास के बिना सूबे का समुचित विकास हो पाएगा ? यदि नहीं तो सरकार इस दिशा में क्‍यों नहीं सोच रही है।

मेरा मानना है कि बिहार में कलाकारों के लिए एक मुकम्‍मल नीति का निर्माण होना चाहिए। अबतक किसी भी पूर्ववर्ती सरकार ने इस दिशा में कोई पहल नहीं की है। जबकि पश्‍िचम बंगाल की सरकार इस दिशा में आगे निकल चुकी है। बिहार सरकार को चाहिए कि एक टीम गठित कर ऐसी नीति बनाए जिससे कलाकारों को पेंशन, बीमा, रोजगार, संरक्षण, सामाजिक सम्‍मान, प्रशिक्षण जैसी बुनियादी सुविधाएं मिल सके। यही नहीं इस दायरे में तमाम ऐसे कलाकारों को शामिल किया जाए जिनकी रोजी रोटी कला के सहारे ही चलती है। उदाहरण के तौर पर एक बैंड बजाने वाला तीन-चार माह बैड बजाता है, बाकी दिनों में बेरोजगारी झेलता है, उसे सामाजिक सम्‍मान भी नहीं मिलता। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों के लोक कलाकारों के लिए कोई व्‍यवस्‍था नहीं है। नाच पार्टी और आर्केस्‍ट्रा में काम करने वाली महिलाओं और पुरुषों के लिए भी कोई मजदूरी तय नहीं है। उनका शोषण होता है। कई जगह तो उनकी हत्‍या भी हो जाती है। चंपारण में ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं। सामाजिक उपेक्षा की तो पूछिए मत। अगर सरकार कलाकारों के लिए नीति बना लेती है तो एक बड़ी उपलब्‍िध होगी।

इसी तरह कला के विकास के लिए वर्ष 2004 में बनाई गई 'सूबे की सांस्‍कृतिक नीति 2004' को जमीन पर उतारने की पहल होनी चाहिए। यह नीति राज्‍य सरकार ने खुद बना रखी है। लेकिन ठंडे बस्‍ते में है। इसमें कला के विकास के लिए कई प्रस्‍ताव शामिल हैं। लेकिन एक भी काम अबतक नहीं हुआ है। मीडिया ने भी कभी इसकी पड़ताल नहीं की। अगर प्राथमिकता के तौर पर सभी जिला मुख्‍यालयों में कला भवन आदि बना दिए जाएं तो सूबे में सांस्‍कृतिक गतिविधियां स्‍वत: बढ जाएंगी। इससे स्‍थानीय कला को प्रोत्‍साहन भी मिलेगा। आज बिहार के किसी भी जिले में कला प्रस्‍तुति के लिए एक अदद कला भवन नहीं है। जहां आडिटोरियम व नगर भवन आदि हैं उसका किराया पांच हजार से उपर है। चाहकर भी कोई आयोजन करने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाता है।

ठीक इसी तरह सूबे में लोक कलाओं व लोक कलाकारों के संरक्षण के लिए अलग से आयोग का गठन होना चाहिए। सबको पता है कि बिहार के हर जिले की अपनी सांस्‍कृतिक पहचान रही है। लेकिन, अब लोक कलाएं मरती जा रही हैं। कई कलाएं लुप्‍त हो चुकी हैं। इन कलाओं से जुड़े लोक कलाकार उजड़ते जा रहे हैं। मिथिलांचल में दसौत, सामा-चकेवा, झिझिया, जटा-जटिन, झुमरि, रमखेलिया, डोमकछ, लोरिक-सलहेस, गोपीचन्द, विदापत, हरिलता एवं विहुला प्रचलित लोक नाटक रहे हैं। इसके अलावा बिहार में अन्‍य प्रचलित लोक-नाटकों में चौपहरा, नारदी, नयना-योगिन, भाव, झड़नी, पमरिया भी प्रमुख रहा है। इस पर शोध नहीं हो रहा है। सो, इन्‍हें सहेजने के लिए सूबे में एक अलग आयोग का गठन होना ही चाहिए। इससे बिहार की सांस्‍कृति एक बार फिर झूम उठेगी। यही नहीं सूबे में सकारात्‍मक माहौल भी बनेगा। हां, इसमें ध्‍यान रखने की बात यह होगी कि आयोग में लोक कलाकार ही प्रमुखता से शामिल रहें।

- एम. अखलाक
(लेखक लोक कलाकारों के जनसंगठन 'गांव जवार' के सदस्‍य हैं)

1 टिप्पणी:

  1. नमस्कार सर, विना सांस्कृतिक विकास के समुचित विकास संभव नहीं हो सकता. सांस्कृतिक विकास के लिए संस्कृति की जड़ों को पोषित करने वाले कलाकारों की तरक्की भी जरुरी है. इसलिए सरकार को निति निर्माण करते समय उनका भी ख्याल रखना चहिये.

    जवाब देंहटाएं