सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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सोमवार, 9 नवंबर 2009

प्रभाष जोशी की एक कृति मैं भी

प्रभाष जोशी जी की एक कृति मैं भी हूं। 1996-97 में जो के.के. बिड़ला फाउंडेशन फेलोशीप मुझे मिला उसके लिए मैंने पहले से आवेदन नहीं कर रखा था। पता नहीं उन्होंने मेरे में क्या खूबी देखी कि बुलाकर यह फेलोशीप दिलवा दी। यूं तो मैं छात्र जीवन से ही एक्टविस्ट था और पत्रकारिता में भी अभियानी पत्रकार के रूप में जाना जाता था, लेकिन इस फेलोशीप ने मेरी जीवनधारा पूरी तरह बदल दी और मैं एक्टविस्ट हो गया।पत्रकारिता के क्षेत्र में मैंने 'जनशक्ति' से 'जनसत्ता' तक का सफर तय किया है। जिस तरह फिराक गोरखपुरी के बारे में किसी ने कहा था कि आने वाली नस्लें तुम पर फक्र करेगी कि तुमने फिराक को देखा है। मैं भी उन खुशनसीब लोगों में से हूं जिसे प्रभाष जोशी के मातहत दो-ढाई साल काम करने का मौका मिला है। इन्हीं दिनों की दो-तीन घटनाओं का यहां जिक्र करना चाहता हूं। जनसत्ता के पटना कार्यालय में सुरेन्द्र किशोर जी हमारे सीनियर थे। एक दिन खबर आयी कि जोशी जी पटना आ रहे हैं। इसके पहले कभी मैं उनसे नहीं मिला था। सच पूछिए तो मैं काफी अंदर से डरा हुआ था। मगर जब वह कार्यालय आए और कंधे पर हाथ रखकर दुलारते हुए बातें की तो सारा डर फौरन काफूर हो गया। सुरेन्द्र जी ने अपनी कुर्सी पर उन्हें बैठाना चाहा मगर वह मेरे सामने रखी कुर्सी पर आकर बैठ गये। फिर वह हम दोनों को मौर्या होटल ले गये और वहां साथ में खाना भी खिलाया।दूसरी घटना मैं सुरेन्द्र किशोर जी के हवाले से सुनाना चाहता हूं। दिल्ली में देश भर के जनसत्ता ब्यूरोचीफ की बैठक से सुरेन्द्र जी पटना लौटे थे। उन्होंने खुशी पूर्वक सुनाया कि बैठक में जोशी जी ने कहा कि मैं यहां हिन्दू साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ रहा हूं तो पटना में हमारा संवाददाता अली अनवर मुस्लिम फिरकापरस्ती के खिलाफ कलम की लड़ाई लड़ रहा है। जाहिर है कि वह दौर अयोध्या विवाद और शिलापूजन का था जिसमें जोशी जी की लेखनी गरज रही थी। इधर मैंने भी खुदाबख्श लाइब्रेरी के डायरेक्टर बेदार साहब के खिलाफ मुस्लिम फंडामेनटलिस्टों द्वारा चलाये जा रहे अभियान के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था।तीसरी घटना को रांची की जनसत्ता संवाददाता वासवी के हवाले से आपको बताना चाहता हूं। वासवी जोशी जी से मिलकर लौटी थीं। वह लंबे समय से रांची में स्ट्रींगर थीं। स्टाफर बनाना चाहती थीं। जोशी जी ने कहा कि पटना में अनवर को भी स्टाफर बनाना है। तब जनसत्ता आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहा था। जोशी जी मुझे और वासवी को स्टाफर नहीं बना सके। इसका मलाल उन्हें बराबर रहा। इसबीच मैंने स्वतंत्र भारत में नौकरी कर ली। इसमें रहते हुए ही जोशी जी ने मुझे के.के.बिड़ला फाउंडेशन फेलोशीप दिलवाया। एक साल के अध्ययन के बाद जब मेरी किताब 'मसावात की जंग' तैयार हुई तो उसे छपवाने से लेकर उसका विमोचन कराने तक जोशी जी पेश-पेश रहे। वह मुझे लेकर पूर्व प्रधानमंत्री बीपी सिंह के यहां गये। बीपी सिंह ने पटना के गांधी मैदान में हमारी किताब का विमोचन किया। उन दिनों यहां पुस्तक मेला लगा था। बीपी सिंह जी पिछले सात साल से पटना नहीं आये थे और मृत्युपर्यन्त वह कभी पटना नहीं आ सके। 2004 में जब मेरी दूसरी किताब 'दलित मुसलमान' आयी तो जोशी जी ने उसका भी विमोचन बीपी सिंह से दिल्ली के रामलीला मैदान में कराया। यहां मैं बताते चलूं कि अपनी दोनों पुस्तकों का विमोचन मैं जोशी जी से ही कराना चाहता था, लेकिन उन्होंने ही बीपी सिंह का नाम सुझाया और मुझे उसके लिए राजी किया।जोशी जी ने अपने सभी संगी साथियों के बीच मुझे मकबूल बना दिया था। अपने 'कागद कारे' कालम में भी कई बार मेरे जैसे अदना आदमी की चर्चा कर दी। उनके अचानक चले जाने से पसमांदा तहरीक को बहुत नुकसान हुआ है। मेरे सर से एक अभिभावक का हाथ हट गया है। हम उन्हें खराज-ए-अकीदत पेश करते हैं।

- अली अनवर अंसारी
(लेखक राज्यसभा सांसद हैं)

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