सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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सोमवार, 6 जुलाई 2009

मेरे गांव की मुर्गियों का फैसला

दो जुलाई सन् 2009 भारत के लिए ऐतिहासिक दिन है। ऐसा हमें टेलीविजन के एंकरों और अगले दिन के अखबारों के शीर्षक से पता चला है। इस दिन भाइयों को भाइयों से और बहनों को बहनों से वह सब करने का अधिकार मिल गया बताया गया है जो कानूनन मर्दों और औरतों के बीच ही जायज माना जाता था। टेलीविजन वाले भाइयों और बहनों ने दिल्ली हाईकोर्ट के हवाले से यह बताते हुए कि समलैंगिक यौन संबंध गैरकानूनी नहीं जो अपार प्रसन्नता दिखायी, उसे देखकर मेरी हालत उस घसगढऩी की तरह हो गयी जिसे यह बताया जाये कि भारत ने एटम बम फोड़ दिया है और वह बेचारी टुकुर-टुकुर ताकने के अलावा कुछ नहीं कर सके। मैं तो आत्मग्लानि से भर गया कि आखिर मेरी बिरादरी (गे नहीं, पत्रकार) के लोग इतने खुश हैं तो मैं यह खुशी क्यों महसूस नहीं कर पा रहा। मैंने बहुत कोशिश की कि कम से कम अल्पसंख्यक होने के नाते ही इस खुशी को आत्मसात कर संकू क्योंकि भाई और बहन लोग तो यही बता रहे थे कि यह एक अल्पसंख्यक वर्ग की बहुत बड़ी कामयाबी है। बड़ी मेहनत कर खुश होने की कोशिश की तो फिर यह ध्यान आया कि हमलोगों से कितना अन्याय हुआ है कि अबतक इस जन-जनानी वर्ग को असामाजिक मानते रहे। पता नहीं कि इस गुनाह की माफी भी है या नहीं। टेलीविजन पर चमकते भाइयों और बहनों से जब मुझे यह जानकारी हुई कि जो लोग यह कहते हैं कि जन-जन के बीच संबंध का भारतीय संस्कृति से रिश्ता नहीं, वे कितने अज्ञानी हैं तो मैं हीनभावना से भर गया क्योंकि यह तो भारत में कब से होता आ रहा है और इस प्रगतिशीलता और उन्मुक्तता के द्योतक की जानकारी मुझे भी नहीं थी। हम तो यह सोच रहे कि देवर-भाभी, भगिना-मामी और जीजा-साली जैसी चीजें तो भी कब से होती आ रहीं, उसे कब कानून की बेड़ी से मुक्ति मिलेगी। वैसे भी भारतीय संस्कृति के बारे में जो जानकार भाई और बहन लोग दें वही सही है। बाकी रहे गांव गिराम के लोग और मंदिर-मस्जिद जाने वाले पुरातनपंथी तो उनकी तो हमेशा यही आदत रहती है कि नयी चीजों (हालांकि भाईयों और बहनों ने बताया है कि यह नयी चीज नहीं) को देखकर वो नाक भौं सिकोड़ देते हैं। इस देश को क्या पसंद करना चाहिए और क्या नापसंद यह फैसला कम अक्ल (इत्तेफाक से ऐसे ही लोग बहुसंख्यक हैं) लोग थोड़े ही कर सकते हैं। हम कैसे कपड़े पहनें, कितने ना पहनें (कान फिल्म समारोह में अभिषेक और ऐश्वर्या के कपड़े से सीख ले सकते हैं) और मियां-बीबी की तरह का सीन पार्कों में दें या तालाब में ऐसी चीजें हमें या तो फिल्म के हीरो-हीरोइनों से सीखनी चाहिए या जैसा हमारे लखटकिया पत्रकार भाई-बहन बताएं वैसा करना चाहिए। इसी तरह हम जैसे सरकारी स्कूलों से पास छात्रों के दिमाग में पता नहीं क्यों यह बात आती है कि दुनिया में कई चीजें जमाने से होते आ रही हैं। वैसा करने से रोकने वाला कोई और कानून तो नहीं इस देश में। कहीं कोई अल्पसंख्यक वर्ग अपने प्यारे जानवरों (माफ कीजिएगा पेट) से वैसा ही रिश्ता कायम करना चाहे तो...। या जिसे अंग्रेजी में इंसेस्ट कहा जाता है, कोई अल्पसंख्यक वर्ग तो ऐसा जरुर होगा कि जो यह अधिकार चाहता होगा। आखिर दो दिल कैसे प्यार करें इसका फैसला तो उन्हें ही करने देना चाहिए या हर जगह हम टांग अड़ाएंगे? कल होके कोई भाई या बहन ऐसा कुछ अपने प्रोग्राम में करने की टे्रनिंग दें तो हम जरुर खुश होने की कोशिश करेंगे। जिसे न देखना हो उसपर कोई जबर्दस्ती तो नहीं। अबकी इस खुशी में हम भी झंडा लेकर फहराएंगे। इस बार बेवकूफ बन गये, और बन सकते नहीं। हम यह भी सोच रहे कि अखबारों में छपने वाले अप्राकृतिक यौनाचार की खबरों का क्या होगा? जिन गुरुजी पर यह आरोप लगता है वह हाईकोर्ट का फैसला पढऩे लगे तो। फिर बालक की उम्र और उसकी सहमति पर फैसला करना कितना मुश्किल होगा? इसी तरह हमारे विज्ञापन वाले बंधु जन-जन या जनानी-जनानी वाली शादी का विज्ञापन किस तरह छापेंगे? किसे वर और किसे वधु वाले सेक्शन में रखा जाएगा? और आखिरी सवाल। एक एंकर बहन ने एक कार्यक्रम के दौरान यह बताया कि लगभग सत्तर प्रतिशत लोगों ने उन्हें संदेश भेजा है कि वे ऐसे संबंध के पक्ष में नहीं जबकि बाकी को कोई आपत्ति नहीं। मैं यह सोच रहा था कि कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले भाई और बहन लोगों का प्रतिशत क्या है? फिलहाल मैं अपनी मुर्गियों को लेकर चिंतित हूं क्योंकि सबों ने यह फैसला किया है कि वह अब मेरे गांव में नहीं रहेंगी। उनका कहना है कि हमें मुर्गों का साथ लिये बहुत दिन हो गये अब मुर्गियों का ही साथ चाहिए और वह तो दिल्ली या बम्बई जैसे शहरों में ही मिलेगा। यहां तो खुल्लम खुल्ला यह नहीं कर सकते ना!

मो. समी अहमद
(लेखक हिन्दुस्तान, मुजफ्फरपुर संस्करण में उप समाचार संपादक हैं।)

1 टिप्पणी:

  1. बहुत अच्छे. हम पत्रकारों की बिरादरी को तो कुछ अलग चाहिए रहता है फिर वह इस तरह की खबरें ही क्यों न हों...

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