सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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शनिवार, 18 जुलाई 2009

दीवान का बड़का गांव

कुमार नयन
कभी रहा होगा बड़ा गांव किसी दीवान का
आज तो यहां का बनिहार तक
लुटाता है इस पर अपनी जान
जुडऩा चाहता है इससे सारा जिला जवार
कोई न कोई रिश्ता जोड़
दूर-दराज के इलाकों में गूंजती है आज भी
इस गांव के कोतवाल सिंह यादव की लंठई की श्रुतियां
लेकिन बात यहीं तक हो तो क्या बात थी
शलभ श्रीराम सिंह को महीनों दारू और मुर्गा परोसकर
हाथ जोड़े उनकी डांट और गालियां खाने वाला यह बड़का गांव
नहीं करता कभी दावा बड़का होने का
क्योंकि नहीं है इसके पास कोई रेलवे स्टेशन, बस मार्ग
या कोई जीप, टैक्सी जैसी सवारी गाड़ी
यहां तक कि कोई अस्पताल, स्कूल, बारात टिकाने का हाल और हाट भी नहीं
कि हांक सके बड़का होने का डींग
बस अपनी धमनियों में सुकरात, अब्राहम लिंकन, कार्ल माक्र्स के
रक्त प्रवाहित करता चौकड़ी भरता रहता है
हिरण की तरह यह दिन रात
दिनेश मुखिया के राजनैतिक दालान से
शशिनारायण के साहित्यिक मंच तक
फिर भी असुविधाओं से भरे इस गांव के पास जरूर कुछ है
वरना पसेरीभर धूल फांक कर
सुरेश कांटक, मधुकर सिंह, राणा प्रताप, विजयन सरीखे साहित्यकार
यहां फिर-फिर आने को क्यों ललचते
और इतना तो यहां हर आने वाला जान जाता है
कि हरगिज नहीं है यह गांव
विश्वग्राम में गुम होने वाला कभी
शायद शहीद ज्योति प्रकाश के खून के
रंग लाने का जिन्दा प्रमाण है यह बड़का गांव
कि चुनावों में बूथ कैप्चरिंग की कौन कहे
बोगस मतदान करने की भी नहीं की जुर्रत कभी किसी ने
संसदीय इतिहास में
चमारों, दुसाधों, पासियों, धोबियों, नाइयों के लिए तो
यह गांव बड़का नहीं, बहुत बड़का है
जो खोलता है कई-कई परतें
देश की नहीं, गांव की आजादी की
कभी अठानबे बरस के पट़ठे शिवनारायण सिंह के चौपाल पर
तो कभी मास्टर तेजनारायण सिंह पहलवान के अखाड़े में
कभी नव सृजन के कलाकारों की परिचर्चा में
तो कभी नहर किनारे रमाशंकर हलुवाई की दुकान पर छिड़ी गरमागरम बहस में
यूं तो कन्हैया ठाकुर की खामोशी खाकसारी भी
किसी बड़का संस्कार की परत खोलती
पूरे गांव की बेचैन आत्मा से कम नहीं लगती
अब आप इसे इसकी खासियत कहें या नुक्स
कि इसने हमेशा देश से आंखें चुरायीं
और दुनिया की तरफ टकटकी बांध कर देखी
कहीं इसीलिए तो नहीं सारी सुविधाओं से वंचित
छोटका से भी छोटका रह गया यह बड़का गांव
समझ सकते हैं ऐसा कुछ लोग
पर यह गांव इनसब बातों से निरपेक्ष
मस्त है अपने आप में
कदम-दर-कदम समाता हुआ सोच और विचार के घने जंगल में
कितना अद्भुत है कि और गांवों की तरह
नहीं बिछाता यह शतरंजी बिसातें
चालें कब की खत्म कर चुका है अपनी
और अब हर छोटा-से छोटा प्यादा भी
बड़का गांव का दीवना बन गया है।

बिहार के बक्सर जिले के रहने वाले कुमार नयन ने यह कविता करीब छह साल पहले लिखी थी। कहने को यह कविता है लेकिन यह गांव पर उम्दा किस्म का रिपोर्ताज भी है। इसकी इसी खासियत की वजह से हम आपतक इसे परोस रहे हैं। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा। - एम. अखलाक

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