सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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बुधवार, 10 जून 2009

खामोश यादों के सिवा दिल में रहा कुछ भी नहीं

हिन्दी फिल्मी गीतों में लोक धुनों का पुट डालने वाले शहर के सुप्रसिद्ध संगीतकार पं.मुनीन्द्र शुक्ल वर्तमान संगीतकारों के लिए गुमनाम हो गये। साठ से लेकर अस्सी के दशक तक कई हिन्दी फिल्मों में लोक संगीत की परंपरा कायम करने वाले श्री शुक्ल को संगीत में रची-बसी नई पीढ़ी नहीं जानती। वजह वर्तमान संगीत इस संगीतकार को रास नहीं आता। वर्ष 1964 से लेकर 1985 तक सी.रामचंद्रन एवं इकबाल कुरैशी जैसे मशहूर संगीतकारों के साथ गीतों के धुन में सहयोग कर इन्होंने लोक संगीत को समृद्धि दिलाई थी। इस दौरान 'काबुलीवाला', 'खिड़की', 'बरसात की रात', 'आदमी', 'चाणक्या', 'दिल ही तो है', 'लव इन शिमला', 'कव्वाली की रात एवं 'मेरे गरीब नवाज' जैसे कई फिल्मों के संगीत निर्माण में इनका योगदान संगीत निर्देशकों को काफी पसंद आया। हालांकि वर्ष 1964 में ही निर्माता प्यारेलाल संतोषी की दो फिल्मों 'कब होई गवनवा हमार' एवं 'फिर से फुलायल फुलवनमा' में संगीत निर्देशन कर इन्होंने भोजपुरी फिल्म संगीत के नये दौर की शुरूआत की। श्री शुक्ल के मधुर संगीत के कारण ही सुप्रसिद्ध पाश्र्वगायिका लता मंगेशकर, मो.रफी, मन्नाडे, आशा भोंसले, उषा मंगेशकर, सुमन कल्याणपुरकर एवं महेन्द्र कपूर ने भोजपुरी गीतों को अपना स्वर दिया। फिल्मों में आने से पहले श्री शुक्ल वर्ष 1951 से 1963 तक आकाशवाणी पटना के नियमित कलाकार के रूप में लोक कला को समृद्ध करते रहे हैं। इनके संगीत निर्देशन में वर्ष 1960 के गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्रपति भवन में बिहार की टीम ने प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था। श्री शुक्ल बताते हैं कि जब तक वे आकाशवाणी से जुड़े रहे तब तक बिहार का लोक संगीत निरंतर प्रयोग की कसौटी पर कसा जाता रहा। पदमविभूषण गायिका स्व.विन्ध्यवासिनी देवी के अनेक रेडियो कार्यक्रम में वे संगीत को सजाते रहे हैं। परंतु मुम्बई चले जाने के बाद उन्हें आकाशवाणी की नौकरी छोडऩी पड़ी। वे कहते हैं कि उस वक्त हिन्दी फिल्मों का दौर था। भोजपुरी फिल्म बहुत कम बना करती थी। उसके बावजूद राजकुमार संतोषी के पिता प्यारेलाल संतोषी ने मुझ पर भरोस कर दो फिल्मों का निर्माण किया था। वे दोनों फिल्में खूब चली भी थी। संगीत के संदर्भ में श्री शुक्ल कहते हैं कि बांसुरी से उन्हें काफी प्रेम रहा है। उनकी प्रारंभिक पहचान बांसुरीवादक के रूप में ही बनी थी। स्व.देवदत्त चित्रकार बांसुरीवादन के उनके प्रारंभिक गुरु थे। उसके बाद छह वर्ष तक इलाहाबाद के प्रयाग विश्वविद्यालय से बांसुरीवादन की शिक्षा ली। साथ ही उस्ताद अब्दुल गनी खां के निर्देशन में शास्त्रीय एवं लोक संगीत गायन भी सीखा। फिल्मों से दूर चले जाने के संदर्भ में श्री शुक्ल कहते हैं कि अचानक पत्नी के निधन के कारण उन्हें मुम्बई से वापस मुजफ्फरपुर आना पड़ा। इस दौरान कई फिल्मों के प्रस्ताव भी छोडऩे पड़े। फिर पारिवारिक जिम्मेवारी ने कभी जाने नहीं दिया। श्री शुक्ल कहते हैं कि संगीत से उनका प्रेम पहले की ही तरह है। वे अब भी घंटो रियाज कर अपनी साधना बरकरार रखे हुए हैं। रिपोर्ट : विनय, मुजफ्फरपुर से

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