सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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गुरुवार, 4 जून 2009

फांसी चढऩे वाले सेनानी वारिस अली

अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 1857 में जहां मेरठ और दिल्ली में सिपाही विद्रोह के जरिये स्वाधीनता संग्राम की लपटें धधकने को बेताब थीं, वहीं तिरहुत की जमीन भी आजादी के लिए मचल रही थी। यहां के सपूतों में भी अंग्रेजों के खिलाफ नफरत और असंतोष के बीज पनप चुके थे। मेरठ के सिपाहियों ने 10 मई 1857 को जहां विद्रोह का बिगुल फूंक कर अंग्रेजी सल्तनत की नींव हिला दी, वहीं मुजफ्फरपुर के एक थाने में पदस्थ सिपाही वारिस अली की देशभक्ति भी अंग्रेजी हुकूमत के लिए परेशानी का सबब बन गयी। अकेले वारिस अली ने तिरहुत में अंग्रेजी सत्ता को चुनौती दे डाली। वीर कुंवर सिंह के सहयोगी माने जाने वाले वारिस अली ने यहां अंग्रेजों को नाको चने चबा दिये। फिर क्या था, अंग्रेजी हुकूमत कुछ इस तरह बौखलाई कि स्वतंत्रता सेनानियों को कुचलने और यहां पदस्थ अंग्रेज सिपाहियों की सुरक्षा के लिए एक खास रणनीति तैयार की। कोलकाता से हजारों की संख्या में सैनिक बुला लिये गये और देखते ही देखते मुजफ्फरपुर सैनिक छावनी में तब्दील हो गया। 23 जून 1857 को वारिस अली को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर उनके खिलाफ मुकदमा चलाया और अंतत: उन्हें 6 जुलाई 1857 को फांसी दे दी गयी। कहा जाता है कि स्वतंत्रता संग्राम में पहली फांसी वारिस अली को ही दी गयी थी।
रिपोर्ट - एम. अखलाक

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