सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

कल्याणी के आंगन में नहीं 'नाचे' प्रत्याशी

मुजफ्फरपुर : बस दो पल के लिए जिंदगी के दुख-दर्द से बाहर निकलकर कल्पना लोक में चले आइए। फर्ज कीजिए, आप एक चौराहे पर खड़े हैं। यह शहर की ह्रदय स्थली के रूप में मशहूर है। यहां से निकलने वाले रास्ते चार दिशाओं में जाने का संकेत देते हैं। मौसम चुनावी है और दीवाली भी दस्तक दे रही है। इसलिए चौराहे के आसपास बाजार भी चहक रहे हैं। इसी बीच चुनाव प्रचार का अंतिम दिन भी आ टपका। सभा के लिए शाम पांच बजे का वक्त अंतिम डेडलाइन है। करीब तीन बजे से चौराहे पर दलों के प्रत्याशी अपने झंडा-बैनर के साथ टपकने लगते हैं। बारी-बारी शुरू हो जाता है चुनावी भाषण मुकाबला। ना कोई मारपीट, ना कोई हंगामा। लेकिन, सब छोड़ते हैं एक दूसरे पर जहर बुझे तीर। इतना ही नहीं खुलकर रखते हैं अपनी बात। भाषण के वजन के हिसाब से बटोरते हैं तालियां भी। और पांच बजते ही अपने-अपने चुनावी आशियानों की ओर कर जाते हैं प्रस्थान। अब आंख खोलिए और खुद से सवाल कीजिए- क्या ऐसी आदर्श व्यवस्था कहीं संभव है? बहुतेरों का जवाब होगा- नहीं। पर, इस शहर में कई-कई चुनावों को देख चुके लोग तुरंत बोल पड़ेंगे- यह तो कल्याणी चौक का नजारा है।

मुजफ्फरपुर सूबे का इकलौता ऐसा अनूठा शहर रहा है जहां चुनाव प्रचार के अंतिम दिन एक ही चौराहे पर सभी प्रत्याशी जनता से अपनी बात कहने के लिए खुद जुटते हैं। कोई आयोजक या प्रायोजक नहीं होता है। प्रत्याशी प्रचार गाडिय़ों पर बने मंच पर खड़ा होकर ही पब्लिक से मुखातिब होते हैं। गत लोकसभा चुनाव हो या फरवरी और अक्टूबर 2005 का विधानसभा चुनाव या फिर उससे पहले के चुनाव, सभी उस अनूठे नजारे को देख चुके हैं। पर, इस बार शहरवासी वैसे नजारे नहीं देख पाए। हालांकि शुक्रवार को चुनाव प्रचार का अंतिम दिन होने के कारण परंपरा के मुताबिक सैकड़ों लोग तीन बजे तक कल्याणी चौक पहुंच गए थे। सबकी आंखें प्रत्याशियों की बाट जोह रही थीं। आंखें उनसे कुछ सवाल करना चाहती थीं। बदरंग होती शहर की सूरत के बारे में। बेरोजगार घूमते हाथों के बारे में। गंदी बस्तियों में पानी के बारे में। बिजली के बारे में...। पर, पहुंचने के बाद ज्योंही पता चला कि इस बार चुनाव आयोग ने सिर्फ एक ही प्रत्याशी को यहां सभा करने की इजाजत दी है। आंखों में सवाल तैरते रह गए। चेहरे उतर गए। घर लौटते वक्त बस एक ही बात जेहन में उमड़ -घुमड़ रही थी- एक परंपरा टूट गई, जो लंबे काल से चली आ रही थी।

प्रस्‍तुति - एम. अखलाक

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