पंचायतीराज और महिलाएं - 3
'‘यदि गांव की कोई महिला माहवारी से है तो उसे चार-पांच दिन एक अलग
कमरे में रहना पड़ेगा। उन दिनों चाहकर भी स्नान नहीं कर सकती है। खाना नहीं बना
सकती। यदि बनाएगी तो कोई खाएगा नहीं। परिवार में यदि कोई शुभ कार्य प्रस्तावित है
और उसी बीच माहवारी की संभावना बन जाए तो दवा खाकर माहवारी को टालना उसकी मजबूरी
है। चाहे सेहत भाड़ में जाए। ऐसा नहीं करने पर वह किसी भी शुभ कार्य में शामिल नहीं
हो सकती। इसी तरह माहवारी के दिनों में गांव की लड़कियां स्कूल नहीं जाती
हैं।’'
यह कड़वी सच्चाई है तेजी से बदल रहे बिहार के गांवों की। हर गांव में ऐसे मामले
मिल जाएंगे। सुदूर गांवों की तो स्थिति और भी भयावह है। दरअसल, ग्रामीण महिलाओं की
सेहत का सवाल अब भी पंचायतीराज व्यवस्था का अहम एजेंडा नहीं बन पाया है। तमाम
पंचायतें सिर्फ सड़क, पानी, भवन निर्माण, मिड-डे मील, आंगनबाड़ी, इंदिरा आवास, बीपीएल
सूची, पेंशन वितरण आदि योजनाओं तक सिमट कर रह गई हैं। जिन पंचायतों का नेतृत्व खुद
महिलाएं कर रही हैं, वहां भी यह सवाल एजेंडे से गायब है।
गैर सरकारी संगठन ‘प्लान इंडिया’ और कुछ वेबसाइटों की रिपोर्ट पर यकीन करें तो
देश में 70 फीसद ग्रामीण महिलाएं सैनेटरी नैपकिन की पहुंच से दूर हैं। इसमें बिहार
की ग्रामीण महिलाएं भी शामिल हैं। गांव की महिलाओं और स्त्री रोग विशेषज्ञों के बीच
देशभर में कराए गए सर्वे में पाया गया है कि माहवारी के दौरान देखरेख नहीं होने से
ग्रामीण क्षेत्रें की किशोरियां कम से कम 50 दिन स्कूल नहीं जा पाती हैं। देश में
माहवारी से गुजरने वाली 35-5 करोड़ महिलाओं में केवल 12 फीसदी महिलाएं ही सैनिटरी
नैपकिनों का इस्तेमाल करती हैं।
मुजफ्फरपुर जिले की स्त्री रोग विशेषज्ञ डाक्टर ज्योति कहती हैं कि जागरुकता
के अभाव में आज भी ग्रामीण महिलाएं माहवारी के समय गंदे कपड़े, मिट्टी और राऽ आदि
इस्तेमाल करती हैं। कई महिलाएं तो एक ही कपड़े को बार-बार धोकर यूज करती हैं। इससे
हमेशा संक्रमण का ऽतरा बना रहता है। यह उनकी प्रोडक्टिविटी पर भी बुरा असर डालता
है। उन्हें यूट्रस संबंधी कई बीमारियों का शिकार बना देता है। हर दिन गंभीर
बीमारियों से परेशान महिलाएं इलाज के लिए आती रहती हैं। जो महिलाएं दवाओं का सेवन
कर माहवारी को रोकती हैं, पहले तो उनका मासिक चक्र अनियमित हो जाता है। उसके बाद
शारीरिक समस्याएं बढ़ जाती हैं।
महिला समाख्या सोसाइटी की जिला कार्यक्रम समन्वयक पूनम कुमारी कहती हैं कि
गांवों में महिलाओं की बड़ी आबादी सैनेटरी नैपकिन खरीदने में अक्षम है। यही वजह है
कि किसी भी चीज से काम चला लेती हैं। इसका बुरा असर उनकी सेहत पर पड़ रहा है।
सरकार की योजना का लाभ उठाएं
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ग्रामीण महिलाओं को इस तरह की परेशानी से उबारने के लिए ‘वन रुपीज सेनेटरी नैपकिन’ नामक योजना चला रही है। इसके तहत ग्रामीण महिलाएं केवल एक रुपये में नैपकिन ऽरीद सकती हैं। इसके लिए उन्हें गांव के सरकारी अस्पतालों में जाने की भी जरूरत नहीं है। आशा कार्यकर्ता ही घूमघूम की एक रुपये कमीशन पर मुहैया कराती हैं। सरकार उन्हें छह सैनेटरी पैड का पैकेट पांच रुपये में उपलब्ध कराती है, जिसे वह छह रुपये में बेचती हैं। यह योजना बीस से अधिक राज्यों के जिलों में चल रही है। इसमें मुजफ्फरपुर जिला भी शामिल हैं।
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ग्रामीण महिलाओं को इस तरह की परेशानी से उबारने के लिए ‘वन रुपीज सेनेटरी नैपकिन’ नामक योजना चला रही है। इसके तहत ग्रामीण महिलाएं केवल एक रुपये में नैपकिन ऽरीद सकती हैं। इसके लिए उन्हें गांव के सरकारी अस्पतालों में जाने की भी जरूरत नहीं है। आशा कार्यकर्ता ही घूमघूम की एक रुपये कमीशन पर मुहैया कराती हैं। सरकार उन्हें छह सैनेटरी पैड का पैकेट पांच रुपये में उपलब्ध कराती है, जिसे वह छह रुपये में बेचती हैं। यह योजना बीस से अधिक राज्यों के जिलों में चल रही है। इसमें मुजफ्फरपुर जिला भी शामिल हैं।
क्या कर सकती हैं पंचायतें
- माहवारी से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने के लिए गांवों में जागरूकता अभियान चला सकती है।
- जागरूकता अभियान में स्वयं सहायता समूह, महिला संगठन, महिला जनप्रतिनिधि अहम रोल अदा कर सकते हैं।
- आशा कार्यकर्ता नैपकिन बेचने में रूचि दिखा रही हैं या नहीं, इसकी पड़ताल वार्ड सदस्य करें। पंचायतों को इसकी रिपोर्ट दें।
- आशा कार्यकर्ताओं के जरिए महिलाओं को माहवारी रोकने वाली दवा के कुप्रभाव की जानकारी दी जाए।
- ग्रामीण क्षेत्र के स्कूल की शिक्षिकाओं की मदद से किशोरियों को जागरूक करने की रणनीति बनाई जाए।
- ग्रामीण क्षेत्र की छोटी-बड़ी दुकानों पर सेनेटरी नैपकिन सहज तरीके से उपलब्ध कराया जाए।
- इस पूरे अभियान को पंचायत संचालित करे, क्योंकि इस समस्या से सर्वाधिक गांव की महिलाएं प्रभावित हैं।
रिपोर्ट - एम. अखलाक
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