यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि भिखारी ठाकुर का कलाकार मन आखिर जागा कैसे? वाक्या कुछ यूं है- किशोरावस्था में ही उनका विवाह मतुरना के साथ हो गया था। लुक-छिपकर वह नाच देखने चले जाते थे और नृत्य-मंडलियों में छोटी-मोटी भूमिकाएं भी अदा करने लगे थे। पर, मां-बाप को यह कतई पसंद न था। एक रोज गांव से भागकर वह खडग़पुर जा पहुंचे और इधर-उधर का काम करने लगे। मेदिनीपुर जिले की रामलीला और जगन्नाथपुरी की रथयात्रा देख-देखकर उनके भीतर का सोया कलाकार फिर से जाग उठा। फिर वे जब गांव लौटे तो कलात्मक प्रतिभा और धार्मिक भावनाओं से पूरी तरह लैस थे। परिवार के विरोध के बावजूद नृत्य मंडली का गठन कर वह शोहरत की बुलंदियों को छूने लगे। तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने विदेसिया की रचना की, फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। जन-जन की जुबान पर बस एक ही नाम गूंजने लगा- भिखारी ठाकुर!उत्तर बिहार के छपरा शहर से लगभग दस किलोमीटर पूर्व में चिरान नामक स्थान के पास कुतुबपुर गांव में भिखारी ठाकुर का जन्म पौष मास शुक्ल पंचमी संवत् 1944 तद्नुसार 18 दिसंबर, 1887 (सोमवार) को दोपहर बारह बजे शिवकली देवी और दलसिंगार ठाकुर के घर हुआ था। अब भी अपनी दीन-हीन दशा पर आंसू बहाता खड़ा है कुतुबपुर गांव, जो कभी भोजपुर (शाहाबाद) जिले में था, पर गंगा की कटान को झेलता सारण (छपरा) जिले में आ गया है। इसी गांव के पूर्वी छोर पर स्थित है भिखारी ठाकुर का पुश्तैनी, कच्चा, पुराना, खपरैल मकान।अपने मां-बाप की ज्येष्ठ संतान भिखारी ने नौ वर्ष की अवस्था में पढ़ाई शुरू की। एक वर्ष तक तो कुछ भी न सीख सके। साथ में छोटे भाई थे बहोर ठाकुर। बाद में गुरु भगवान से उन्होंने ककहरा सीखा और स्कूली शिक्षा अक्षर-ज्ञान तक ही सीमित रही। बस, किसी तरह टो-टाकर वह रामचरित मानस पढ़ लेते थे। वह कैथी लिपि में ही लिखते थे, जिसे दूसरों के लिए पढ़ पाना मुश्किल होता था। पर, लेखन की मौलिक प्रतिभा उनमें जन्मजात थी। इस प्रकार, शिक्षा में वह कबीर की श्रेणी में आते हैं।वर्ष 1938 से 1962 के मध्य भिखारी ठाकुर की लगभग तीन दर्जन पुस्तिकाएं छपीं, जिन्हें फुटपाथों से खरीदकर लोग चाव से पढ़ा करते थे। अधिकतर पुस्तिकाएं दूधनाथ प्रेस, सलकिया (हावड़ा) और कचौड़ी गली (वाराणसी) से प्रकाशित हुई थीं। नाटकों व रूपकों में बहरा बहार (विदेसिया), कलियुग प्रेम (पियवा नसइल), गंगा-स्नान, बेटी वियोग (बेटी बेचवा), भाई विरोध, पुत्र-वधू, विधवा-विलाप, राधेश्याम बहार, ननद-भौजाई, गबरघिचोर आदि मुख्य हैं।समालोचक महेश्वराचार्य ने पहले 1964 में जनकवि भिखारी ठाकुर, फिर 1978 में परिवद्र्धित संस्करण भिखारी की रचना की। बाद में उन्होंने समालोचनात्मक मोनोग्राफ भी लिखा। प्रख्यात कथाकार संजीव ने भी भिखारी ठाकुर के जीवन पर आधारित सूत्रधार उपन्यास की रचना की है। मगर, आलोचना-समालोचना से परे सादा जीवन, उच्च विचार की जीवंत प्रतिमूर्ति थे भिखारी ठाकुर। रोटी, भात, सत्तू-जो भी मिल जाता, ईश्वर का प्रसाद मानकर प्रेमपूर्वक ग्र्रहण करते थे। भोजन के बाद गुड़ वे शौकिया खाते थे। बिना किनारी की धोती, छह गज की मिरजई, सिर पर साफा और पैरों में जूता उनका पहनावा था। उनकी दिली तमन्ना थी-सदा भिखारी रहसु भिखारी!10 जुलाई, 1971 (शनिवार) को चौरासी वर्ष की अवस्था में उनका निधन हुआ। राय बहादुर का खिताब, बिहार सरकार से ताम्रपत्र, जिलाधिकारी (भोजपुर) से शील्ड, विदेसिया फिल्म से प्रसिद्धि और जनता में अभूतपूर्व लोकप्रियता मिलने के बाद भी आजीवन कोई अहम् भाव नहीं। दरवाजे के सामने जमीन पर चटाई बिछाकर बैठे रहते, अपने आपको सबसे छोटा आदमी मानकर चलते और उम्र में छोटा हो या बड़ा, सबका हाथ जोड़कर ही अभिवादन किया करते थे। महापंडित राहुल जी ने भिखारी को जहां भोजपुरी का शेक्सपीयर व अनगढ़ हीरा कहा, वहीं जगदीशचंद्र माथुर ने उन्हें भरतमुनि की परंपरा का (प्रथम) लोकनाटककार माना। भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी को अभूतपूर्व ऊंचाई, गहराई व विस्तार दिया। खांटी माटी और जनजीवन से गहरा जुड़ा उनका साहित्य जनसामान्य का कंठहार बन गया तथा भोजपुरी व भिखारी- दोनों एक-दूसरे के पूरक-से हो गए। अपनी नृत्य मंडली के माध्यम से भिखारी धूमकेतु की तरह छा गए और ज्यों-ज्यों वक्त गुजरता जा रहा है, भिखारी के व्यक्तित्व-कृतित्व की चमक और बढ़ती जा रही है। गोस्वामी तुलसीदास व कबीर की तरह यदि लोकभाषा के किसी कवि-कलाकार को संपूर्ण उत्तर भारत के जन-जन में प्रचंड लोकप्रियता मिली, तो वह थे भिखारी ठाकुर। भिखारी का अभ्युदय उस समय हुआ, जब देश की आम जनता विदेशियों की त्रासद दासता झेलने के साथ ही अज्ञानता, सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वास व रूढिय़ों की बेडिय़ों में बुरी तरह जकड़ी हुई थी। सर्वाधिक बुरी स्थिति नारियों की थी, जो खूंटे से बंधी गाय की तरह बाल विवाह, बेमेल विवाह का शिकार हो, विधवा का जीवन जीने को अभिशप्त थीं। भिखारी ने अत्यंत निर्धन परिवार में जन्म लेकर न सिर्फ समाज के दबे-कुचले वर्ग का प्रतिनिधित्व किया, बल्कि मुख्य रूप से आधी आबादी की बदहाली को ही अपनी सृजनधर्मिता का विषय बनाया। वह लोकभाषा की अकूत क्षमता से बखूबी परिचित थे, तभी तो निरक्षर होने के बावजूद जन-जन तक पहुंचने के लिए उन्होंने अपनी मातृभाषा भोजपुरी में न केवल सबसे पहले लोक नाटकों का प्रभावोत्पादक प्रणयन व मंच-प्रस्तुति की, वरन लोकशैली विदेसिया के प्रवर्तक केरूप में भी प्रख्यात हुए। लोकनाटककार, जनकवि, अभिनेता, निर्देशक, सूत्रधार आदि अनेक मौलिक गुणों से संपन्न भिखारी सबसे पहले मनुष्य थे- मनुष्यता की कसौटी पर खरे उतरने वाले अप्रतिम कलाकार।
रिपोर्ट - एम अखलाक
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