जहां एक ओर महिलाएं अंतरिक्ष में जा रहीं हैं, शासन सत्ता में साझीदार बन रहीं हैं, सबला बनने के हर जतन और जुगत में लगी हैं, वहीं बेरोजगारी, गरीबी, बेबसी और मुफलिसी की शिकार न जानें कितनी महिलाएं रोज मर कर जीने को अभिशप्त हैं। चंद सिक्कों के लिए ऐसी महिलाएं, पुरुषों के हाथ की कठपुतली बन गयी हैं। भागलपुर और इसके आसपास के इलाके मसलन-बिहपुर, नारायणपुर, नवगछिया, खरीक, तेतरी, गोपालपुर आज कल देह व्यापार के बड़े बाजार हो गये है। जहां पेट की खातिर मां के साथ बेटियां भी अपने तन का सौदा करती हैं। पिछले महीने की 4-5 तारीख को नाको (नेशनल एड्स कन्ट्रोल सोसाइटी) एवं बिसेक्स (बिहार एड्स कन्ट्रोल सोसाइटी) की चार सदस्यीय टीम ने यहां का दौरा करके देह के धंधे में लिप्त महिलाओं एवं युवतियों से बातचीत की। टीम के मुताबिक लगभग 600 महिलाएं एवं युवतियां इस धंधे को अंजाम दे रहीं हैं। सड़कों एवं रेलवे लाइन के किनारे बनी झुग्गी-झोपडिय़ों एवं गंदी बस्तियों में रहने वाली महिलाएं और युवतियां इस व्यापार को बढ़ावा दे रही हैं। इसे सिंचित करने में क्षेत्र की भौगोलिक, आर्थिक और सामाजिक संरचना का भी अहम रोल है। लगभग 24 लाख 23 हजार 172 की आबादी वाले इस क्षेत्र में लगभग 2 लाख 54 हजार 864 लोग कमजोर वर्गों के हैं। कुल आबादी की 70।19 फीसदी गरीबी रेखा से नीचे हैं। दलित समुदाय के खेतिहर मजदूरों की संख्या 68।2 प्रतिशत से भी अधिक है। और तो और कोसी और गंगा की गोद में स्थित यह इलाका वर्ष में छह महीने बाढ़ और शेष सुखाड़ की चपेट में रहता है। लिहाजा कमजोर तबकों की औरतों और बेटियों को पेट की खातिर अपने ईमान और इज्जत को दांव पर लगाना पड़ रहा है। उद्योग-धंधे व रोजी रोजगार की कमी के कारण यहां के बहुसंख्यक मजदूर रोजगार की तलाश में दूसरे शहरों या प्रदेशों में पलायन कर गये हैं अथवा यहीं बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं। ऐसी स्थिति में अधिकांश की औरतें और बेटियां वह सब करने को मजबूर हैं, जिसका रास्ता अंधी गलियों से होकर गुजरता है और जिस्म फरोसी के बाजार में दम तोड़ देता है। धंधे में शामिल मनबसिया देवी (काल्पनिक नाम) के चार लड़कियां और दो लड़के हैं। बीमार व बेरोजगार पति का बोझ भी उसी के कंधे पर है। घरों में चूल्हा-चौकी का काम करती है। इससे उनकी परिवार की जरूरतें पूरी नहीं होती। लिहाजा शरीर का सौदा करना पड़ता है। नासिरा मछलियां बेचती हैं। उसके आठ लड़कियां और तीन लड़के हैं। पति की मौत टीबी की बीमारी से हो चुकी है। घर का खर्च चलाने के लिए उसे अपने बेटियों की इज्जत का सौदा करना पड़ता है। कमोवेश इसी तरह की दास्तां फूलमतिया, मैना, चंदा, हमीदा, (काल्पनिक नाम) की भी है। कहने को तो ये छोटे-मोटे सामान लेकर गली- मुहल्ले में फेरी देती हैं, परंतु देह व्यापार के सहारे ही इनकी रोजमर्रे की जरूरतें पूरी होती हैं। रोटी के कुछ टुकड़े और चावल के चंद दानों के लिए मां अपनी बेटियों को जिस्म के सौदागरों को सौंप रही है, जिससे उनके बचपन और सपने तार-तार होकर स्याह कोठरी के किसी कोने में सिसकियों के बीच दम तोड़ रही दे रही हैं। यही इनकी नियति और दिनचर्या है।
रिपोर्ट - कौशलेन्द्र, भागलपुर से, दैनिक जागरण से साभार
हमारी कहानी
8 वर्ष पहले
AKHLAK JI, NAMSKAAR !
जवाब देंहटाएंAAPNE SAMAJ KE IS DARPAN KO UJAGAR KAR DAMDAAR STORY LIKHI HAI.
best report
जवाब देंहटाएंपेट की भूख जो न कराये.......
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