हिन्दुस्तानी सियासत में नकद
अनुदान के मुद्दे पर इन दिनों घमासान का आलम है। सबसे बुजुर्ग पार्टी कांग्रेस का
मानना है कि नव उदारवाद के इस दौर में नकद अनुदान के सहारे ही समाज के कमजोर तबके
की स्थिति सुधारी जा सकती है। जबकि, मुख्य विपक्षी भाजपा और उसके सहयोगी संगठन इसे
कांग्रेस की चुनावी नौटंकी बता रहे हैं। वे कहते हैं कि नकद अनुदान का लालच दे कर
कांग्रेस गांव-गांव में कार्यकर्ता बनाने की कोशिश कर रही है। इस जुबानी जंग और
मतभेद के बीच सबसे बड़ी समानता यह है कि नव उदारवाद समर्थक ये दोनों पार्टियां कम
से कम अनुदान को जायज मान रही हैं। यानी गरीबों को अनुदान दिए जाने के खिलाफ नहीं
हैं।
मेरी राय इनसे इतर है। मेरी समझ से देश में 'अनुदान' एक खतरनाक खेल बन चुका है। इसके सहारे नव उदारवाद की वकालत करने वाली पार्टियां सियासी रोटी सेंक रही हैं। साथ ही वह पूंजीवाद को मजबूती देना चाह रही हैं। इस गहरी चाल से अपना देश कई अर्थों में कमजोर होता जा रहा है। हर गांव और हर आदमी अब अनुदान के खेल में उलझा हुआ है। वह संघर्ष करना और हक की लड़ाई लडऩा भूलता जा रहा है। किसी तरह अनुदान मिल जाए, वह इसी सोंच में डूबा रहता है। वहीं, अनुदान के इस नापाक खेल से पंचायत स्तर पर भ्रष्टाचार की नींव मजबूत हुई हैं।
बिहार में डीजल अनुदान इसका जीवंत उदाहरण है। आप इसके सहारे अनुदान के खेल को आसानी से समझ सकते हैं। एक किसान जिसके खेत बिजली और पानी के अभाव में सूख जाते हैं। फसलें चौपट हो जाती हैं। प्राय: हर साल ऐसा होता है। लेकिन वह समस्या के स्थाई निदान के लिए व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई नहीं लडऩा चाहता है। संघर्ष की बातें नहीं करना चाहता है। नहर में पानी और खेती के लिए 24 घंटे बिजली देने की मांग सरकार से नहीं करता है। वह नुकसान के बदले सिर्फ मुआवजे की मांग करता है। सरकार भी अनुदान देने की घोषणा कर उन्हें उलझा देती हैं। फिर अनुदान का सियासी खेल शुरू होता है। किसान अनुदान के लिए पंचायत से प्रखंड तक चक्कर लगाता है। दलालों की मदद लेता है। अंत में कुछ रुपये उसके हाथ लगते हैं, और वह सारे गम भूल जाता है। हर साल यही पटकथा दोहराई जाती है।
दरअसल, पूंजीवाद समाज के एक तबके को पंगु बनाकर रखना चाहता है। समवेत विकास में उसकी कोई आस्था नहीं होती। 1990 से पूर्व देश में किसान जिस मर्दाना तेवर के साथ हक के लिए लड़ते थे, व्यवस्था परिवर्तन की बात सोचते थे, वह अब कहां दिखता है? कई छोटी पार्टियों के तेवर अब कमजोर पड़ते जा रहे हैं, क्योंकि पूंजीवाद जनसंघर्षों को धीरे धीरे निगल रहा है। दरअसल, अनुदान वह पूंजीवादी चारा है जिसके सहारे आसानी से व्यवस्था को पंगु बनाया जा सकता है। यह लोकतंत्र को मजबूत करने वाले जनप्रतिरोध को कमजोर ही नहीं पूरी तरह अपाहिज बना देता है। हर क्षेत्र में अनुदान, बात बात में अनुदान कहीं न कहीं भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक है। अपने देश व राज्य में कायदे से बुनियादी ढांचा को और मजबूत और बेहतर करने की जरूरत है, ताकि हर कोई साधन संपन्न हो सके। किसी भी व्यक्ति को अनुदान देने और लेने की जरूरत नहीं पड़े। (सोपान स्टेप में प्रकाशित)
- एम. अखलाक
मेरी राय इनसे इतर है। मेरी समझ से देश में 'अनुदान' एक खतरनाक खेल बन चुका है। इसके सहारे नव उदारवाद की वकालत करने वाली पार्टियां सियासी रोटी सेंक रही हैं। साथ ही वह पूंजीवाद को मजबूती देना चाह रही हैं। इस गहरी चाल से अपना देश कई अर्थों में कमजोर होता जा रहा है। हर गांव और हर आदमी अब अनुदान के खेल में उलझा हुआ है। वह संघर्ष करना और हक की लड़ाई लडऩा भूलता जा रहा है। किसी तरह अनुदान मिल जाए, वह इसी सोंच में डूबा रहता है। वहीं, अनुदान के इस नापाक खेल से पंचायत स्तर पर भ्रष्टाचार की नींव मजबूत हुई हैं।
बिहार में डीजल अनुदान इसका जीवंत उदाहरण है। आप इसके सहारे अनुदान के खेल को आसानी से समझ सकते हैं। एक किसान जिसके खेत बिजली और पानी के अभाव में सूख जाते हैं। फसलें चौपट हो जाती हैं। प्राय: हर साल ऐसा होता है। लेकिन वह समस्या के स्थाई निदान के लिए व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई नहीं लडऩा चाहता है। संघर्ष की बातें नहीं करना चाहता है। नहर में पानी और खेती के लिए 24 घंटे बिजली देने की मांग सरकार से नहीं करता है। वह नुकसान के बदले सिर्फ मुआवजे की मांग करता है। सरकार भी अनुदान देने की घोषणा कर उन्हें उलझा देती हैं। फिर अनुदान का सियासी खेल शुरू होता है। किसान अनुदान के लिए पंचायत से प्रखंड तक चक्कर लगाता है। दलालों की मदद लेता है। अंत में कुछ रुपये उसके हाथ लगते हैं, और वह सारे गम भूल जाता है। हर साल यही पटकथा दोहराई जाती है।
दरअसल, पूंजीवाद समाज के एक तबके को पंगु बनाकर रखना चाहता है। समवेत विकास में उसकी कोई आस्था नहीं होती। 1990 से पूर्व देश में किसान जिस मर्दाना तेवर के साथ हक के लिए लड़ते थे, व्यवस्था परिवर्तन की बात सोचते थे, वह अब कहां दिखता है? कई छोटी पार्टियों के तेवर अब कमजोर पड़ते जा रहे हैं, क्योंकि पूंजीवाद जनसंघर्षों को धीरे धीरे निगल रहा है। दरअसल, अनुदान वह पूंजीवादी चारा है जिसके सहारे आसानी से व्यवस्था को पंगु बनाया जा सकता है। यह लोकतंत्र को मजबूत करने वाले जनप्रतिरोध को कमजोर ही नहीं पूरी तरह अपाहिज बना देता है। हर क्षेत्र में अनुदान, बात बात में अनुदान कहीं न कहीं भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक है। अपने देश व राज्य में कायदे से बुनियादी ढांचा को और मजबूत और बेहतर करने की जरूरत है, ताकि हर कोई साधन संपन्न हो सके। किसी भी व्यक्ति को अनुदान देने और लेने की जरूरत नहीं पड़े। (सोपान स्टेप में प्रकाशित)
- एम. अखलाक