सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना

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गुरुवार, 12 सितंबर 2013

अनुदान का खतरनाक खेल

हिन्दुस्तानी सियासत में नकद अनुदान के मुद्दे पर इन दिनों घमासान का आलम है। सबसे बुजुर्ग पार्टी कांग्रेस का मानना है कि नव उदारवाद के इस दौर में नकद अनुदान के सहारे ही समाज के कमजोर तबके की स्थिति सुधारी जा सकती है। जबकि, मुख्य विपक्षी भाजपा और उसके सहयोगी संगठन इसे कांग्रेस की चुनावी नौटंकी बता रहे हैं। वे कहते हैं कि नकद अनुदान का लालच दे कर कांग्रेस गांव-गांव में कार्यकर्ता बनाने की कोशिश कर रही है। इस जुबानी जंग और मतभेद के बीच सबसे बड़ी समानता यह है कि नव उदारवाद समर्थक ये दोनों पार्टियां कम से कम अनुदान को जायज मान रही हैं। यानी गरीबों को अनुदान दिए जाने के खिलाफ नहीं हैं।
मेरी राय इनसे इतर है। मेरी समझ से देश में 'अनुदान' एक खतरनाक खेल बन चुका है। इसके सहारे नव उदारवाद की वकालत करने वाली पार्टियां सियासी रोटी सेंक रही हैं। साथ ही वह पूंजीवाद को मजबूती देना चाह रही हैं। इस गहरी चाल से अपना देश कई अर्थों में कमजोर होता जा रहा है। हर गांव और हर आदमी अब अनुदान के खेल में उलझा हुआ है। वह संघर्ष करना और हक की लड़ाई लडऩा भूलता जा रहा है। किसी तरह अनुदान मिल जाए, वह इसी सोंच में डूबा रहता है। वहीं, अनुदान के इस नापाक खेल से पंचायत स्तर पर भ्रष्टाचार की नींव मजबूत हुई हैं।
बिहार में डीजल अनुदान इसका जीवंत उदाहरण है। आप इसके सहारे अनुदान के खेल को आसानी से समझ सकते हैं। एक किसान जिसके खेत बिजली और पानी के अभाव में सूख जाते हैं। फसलें चौपट हो जाती हैं। प्राय: हर साल ऐसा होता है। लेकिन वह समस्या के स्थाई निदान के लिए व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई नहीं लडऩा चाहता है। संघर्ष की बातें नहीं करना चाहता है। नहर में पानी और खेती के लिए 24 घंटे बिजली देने की मांग सरकार से नहीं करता है। वह नुकसान के बदले सिर्फ मुआवजे की मांग करता है। सरकार भी अनुदान देने की घोषणा कर उन्हें उलझा देती हैं। फिर अनुदान का सियासी खेल शुरू होता है। किसान अनुदान के लिए पंचायत से प्रखंड तक चक्कर लगाता है। दलालों की मदद लेता है। अंत में कुछ रुपये उसके हाथ लगते हैं, और वह सारे गम भूल जाता है। हर साल यही पटकथा दोहराई जाती है।
दरअसल, पूंजीवाद समाज के एक तबके को पंगु बनाकर रखना चाहता है। समवेत विकास में उसकी कोई आस्था नहीं होती। 1990 से पूर्व देश में किसान जिस मर्दाना तेवर के साथ हक के लिए लड़ते थे, व्यवस्था परिवर्तन की बात सोचते थे, वह अब कहां दिखता है? कई छोटी पार्टियों के तेवर अब कमजोर पड़ते जा रहे हैं, क्योंकि पूंजीवाद जनसंघर्षों को धीरे धीरे निगल रहा है। दरअसल, अनुदान वह पूंजीवादी चारा है जिसके सहारे आसानी से व्यवस्था को पंगु बनाया जा सकता है। यह लोकतंत्र को मजबूत करने वाले जनप्रतिरोध को कमजोर ही नहीं पूरी तरह अपाहिज बना देता है। हर क्षेत्र में अनुदान, बात बात में अनुदान कहीं न कहीं भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक है। अपने देश व राज्य में कायदे से बुनियादी ढांचा को और मजबूत और बेहतर करने की जरूरत है, ताकि हर कोई साधन संपन्न हो सके। किसी भी व्यक्ति को अनुदान देने और लेने की जरूरत नहीं पड़े। (सोपान स्‍टेप में प्रकाशित)
- एम. अखलाक

उखड़े खंभे

कहानी - हरिशंकर परसाई  
नाट्य अनुवाद व निर्देशन - एम. अखलाक 
गीत - जयराम शुक्‍ल, अदम गोंडवी व अज्ञात
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सूत्रधार का नाचते हुए मंच पर प्रवेश
सूत्रधार और कोरस मंडली -
नहीं सुनाएं भजन कीर्तन नहीं गान व तान,
नहीं दिखाएं नाटक वाटक न कोई मंच मचान।
हम तो सच बतलाने आए
सच ही सच दिखलाने आए,
सच कहना जो पागलपन है
समझो हम पगलाने आए।
(नाल पर थाप के साथ अखबार बेचने वाले की इंट्री होती है।) 
अखबारवाला -
आज की ताजा खबर, आज की ताजा खबर। मनरेगा में छह सौ करोड़ का घोटाला।
आज की ताजा खबर, आज की ताजा खबर। सूबे में शराब पीने से 50 लोगों की मौत।
आज की ताजा खबर, आज की ताजा खबर। अधिकारी का बेटा घुस लेते गिरफ्तार।
आज की ताजा खबर, आज की ताजा खबर (धीरे-धीरे स्‍वर कम होता चला जाता है।) 
(मंच पर लोग बातचीत कर रहे हैं।)
आदमी एक - अरे भइया, पूछिए मत, किसी भी दफ्तर में चले जाइए, बिना रिश्‍वत काम नहीं होता।
आदमी दो - हां, कल प्रखंड कार्यालय में जाति प्रमाण पत्र बनवाने के लिए गया था, वहां भी कर्मचारी घूस मांग रहे थे।
आदमी तीन - हां भइया, बात तो आप बिल्‍कुल ठीक कह रहे हैं। कोई किसी की सुनने वाला नहीं है।
आदमी चार - आप नहाने की बात कह रहे हैं। यहां तो पीने के लिए भी पानी नसीब नहीं है। तीन दिन से नहीं नहाए हैं। देह में खुजली हो रही है।
आदमी पांच - अब देखिए ना, गलत बिजली बिल भेज दिया। जब सुधरवाने के लिए बिजली आफ‍िस गए तो वहां भी कर्मचारी घूस मांगने लगे।
आदमी छह - यही हाल तो रेलवे स्‍टेशन पर भी है। बिना दलाल के टिकट तक नहीं मिलता।
महिला एक - अरे प्रीति जानती हो, मुजफ्फरपुर में दो महीना से एक लड़की गायब है। पुलिस नहीं खोज पा रही है।
महिला दो - हां दीदी, कानून व्‍यवस्‍था की स्थिति बड़ी खराब है। गांव गांव में शराब बिक रहा है। लड़कियों का घर से निकलना मुश्किल हो गया है।
 
(मुनादी की आवाज सुनाई देती है, सभी चौंककर देखते हैं। उसके पीछे पीछे जाते हैं।)
 
मुनादी वाला - सुनो सुनो सुनो....। राजा का हुक्‍म सुनो...।  राजा ने कहा है, राज्‍य के सभी मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भे से लटका दिया जाएगा।
(मुनादी वाला प्रस्‍थान कर जाता है। मंच पर भीड़ है। कोलाहल है। एक बिजली खंभे के नीचे लोग आपस में बातचीत कर रहे हैं।)
 
भीड़ - वाह भइया, अब जाके राजा जी ने सही कदम उठाया है।
भीड़ - हां भइया, राजा का हुक्‍म बिल्‍कुल सही है।
भीड़ - हां हां, मुनाफाखोरों ने जीना हराम कर दिया है।
भीड़ - भइया, यहां तो बस कहने को सरकार है।
भीड़ - तब क्‍या, चारों ओर भ्रष्‍टाचार का बोल-बाला है।
भीड़- मुखिया से मंत्री तक, कलकटर से चपरासी तक बिना घूस लिए काम नहीं करते।
भीड़ - अरे भाई, तभी तो राजा ने मुनाफाखोरों को बिजली के खंभे से लटकाने की घोषणा की है।
भीड़ का समवेत स्‍वर - प्रेम से बोलो खंभा जी महाराज की जय।
(देखते-देखते लोग बिजली के खंभे की पूजा करना शुरू कर देते हैं। आरती उतारी जाती है।)
(नाल पर थाप के साथ परिवेश बदलता है।
शाम का समय। लोग बेचैन हैं।)
आदमी - अरे मुनिलाल, देख तो घड़ी में क्‍या बज रहे हैं।
आदमी - पांच बजने वाले हैं, भइया।
आदमी - अरे अभी तक कोई आया नहीं।
आदमी - हां, मुनाफाखोर कब टांगे जाएंगे समझ में नहीं आता।
आदमी - अरे, हम तो यही देखने के लिए आज काम पर भी नहीं गए। लगता है दिन बेकार जाएगा।
आदमी - कहीं, मुनादी वाला मजाक तो नहीं कर रहा था।
आदमी - चुप कर, राजा का आदमी कभी झूठ बोलेगा। साले को राजा जी फांसी पर चढ़ा देंगे।
आदमी - चलो, राजा के पास चलते हैं।
भीड़ - हां, हां चलो भाइयों, चलो।
(कुर्सी पर राजा विरजमान हैं। भीड़ खड़ी है।)
गीत --- 
रउरा शासन के नइखे जवाब भाई जी,
राउर कुर्सी से झरेला गुलाब भाई जी।
 
आदमी - महाराज, आपने तो कहा था कि मुनाफाखोर बिजली के खम्भे से लटकाये जाएंगे।
आदमी - महाराज, खम्भे तो वैसे ही खड़े हैं।
आदमी -  और मुनाफाखोर स्वस्थ और सानन्द हैं।राजा - कहा है तो उन्हें खम्भों पर टाँगा ही जाएगा।
आदमी - महाराज, लेकिन ऐसा कब होगा।
राजा - धैर्य रखो, थोड़ा समय लगेगा।
आदमी - महाराज, लेकिन कब तक। 
राजा - टाँगने के लिये फन्दे चाहिये। मैंने फन्दे बनाने का आर्डर दे दिया है। उनके मिलते ही सब मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों से टाँग दूँगा।
आदमी - पर, सुना है महाराज, फन्दे बनाने का ठेका भी एक मुनाफाखोर ने ही लिया है।
राजा - तो क्या हुआ? उसे उसके ही फन्दे से टाँगा जाएगा।
आदमी - पर वह तो कह रहा था कि फाँसी पर लटकाने का ठेका भी मैं ही ले लूँगा।
राजा - नहीं, ऐसा नहीं होगा। फाँसी देना निजी क्षेत्र का उद्योग अभी नहीं हुआ है।
आदमी - (समवेत स्‍वर में)  तो कितने दिन बाद वे लटकाए जाएंगे।
राजा - आज से ठीक सोलहवें दिन वे तुम्हें बिजली के खम्भों से लटके दीखेंगे।
(नाल पर थाप के साथ सूत्रधार आता है। दृश्‍य बदलता है। मंच से राजा की कुर्सी हट हो जाती है। लोग दिन गिनने लगे।)
सूत्रधार -
नहीं सुनाएं भजन कीर्तन नहीं गान व तान,
नहीं दिखाएं नाटक वाटक न कोई मंच मचान।
हम तो सच बतलाने आए
सच ही सच दिखलाने आए,
सच कहना जो पागलपन है
समझो हम पगलाने आए।
 
 
(नाल पर थाप के साथ सीन बदलता है। सुबह का समय है। लोग मुंह हाथ धो रहे हैं।) 
 
 
आदमी - अरे यह क्‍या हुआ। बिजली के सारे खम्भे उखड़े पड़े हैं।
आदमी - हां, रात न आँधी आयी न भूकम्प आया, फिर ये खम्भे कैसे उखड़ गये!
आदमी - आज तो सोलहवा दिन है। राजा ने आज ही तो लटकाने की बात कही थी।
आदमी - हां, लेकिन अब क्‍या होगा।
आदमी - अरे वो देखो, खंभे के पास मजदूर खड़ा है। चलो उससे पूछते हैं।
आदमी - अरे भाई, यहां के बिजली के खंभे कहां गए।
मजदूर - मजदूरों से रात को ये खम्भे उखड़वाये गये हैं।
आदमी - अरे, ऐसा कैसे हो सकता है। तुम्‍हे पता है आज खंभों पर मुनाफाखोर लटकाए जाने वाले थे। राजा ने हुक्‍म दिया था।
आदमी - अरे, पकड़ कर ले चलो इसे राजा के पास।
 
(दृश्‍य बदलता है। राजा का दरबार। लोग मजदूर के साथ उपस्थित हैं।)
 
गीत --- 
रउरा शासन के नइखे जवाब भाई जी,
राउर कुर्सी से झरेला गुलाब भाई जी।

आदमी - महाराज, आप मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों से लटकाने वाले थे, पर रात में सब खम्भे उखाड़ दिये गये। हम इस मजदूर को पकड़ लाये हैं। यह कहता है कि रात को सब खम्भे उखड़वाये गये हैं।
राजा - (मजदूर से) क्यों रे, किसके हुक्म से तुम लोगों ने खम्भे उखाड़े?”
मजदूर - सरकार, ओवरसियर साहब ने हुक्म दिया था।
राजा - ओवरसियर को बुलाया जाए।
अरदली - ओवरसियर हाजिर हो। 
राजा - क्यों जी तुम्हें मालूम है, मैंने आज मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भे से लटकाने की घोषणा की थी?
ओवरसियर - जी सरकार!
राजा - फिर तुमने रातों-रात खम्भे क्यों उखड़वा दिये?
ओवरसियर - सरकार, इंजीनियर साहब ने कल शाम हुक्म दिया था कि रात में सारे खम्भे उखाड़ दिये जाएं।
राजा - इंजीनियर को बुलाया जाए।
अरदली - इंजीनियर हाजिर हो।
इंजीनियर - सरकार, बिजली इंजीनियर ने आदेश दिया था कि रात में सारे खम्भे उखाड़ देना चाहिये।
राजा - बिजली इंजीनियर को बुलाया जाए।
अरदली - बिजली इंजीनियर हाजिर हो।
बिजली इंजीनियर - (हाथ जोड़कर) सेक्रेटरी साहब का हुक्म मिला था।
राजा - सेक्रेटरी को बुलाया जाए।
अरदली - सेक्रेटरी हाजिर हो।
राजा - खम्भे उखाड़ने का हुक्म तुमने दिया था।
सेक्रेटरी - जी सरकार! मैंने।
राजा - यह जानते हुए भी कि आज मैं इन खम्भों का उपयोग मुनाफाखोरों को लटकाने के लिये करने वाला हूँ, तुमने ऐसा दुस्साहस क्यों किया।
सेक्रेटरी - साहब, पूरे शहर की सुरक्षा का सवाल था। अगर रात को खम्भे न हटा लिये जाते, तो आज पूरा शहर नष्ट हो जाता!
राजा - यह तुमने कैसे जाना? किसने बताया तुम्हें?
सेक्रेटरी - मुझे विशेषज्ञ ने सलाह दी थी कि यदि शहर को बचाना चाहते हो तो सुबह होने से पहले खम्भों को उखड़वा दो।
राजा - कौन है यह विशेषज्ञ? भरोसे का आदमी है?
सेक्रेटरी - बिल्कुल भरोसे का आदमी है सरकार। घर का आदमी है। मेरा साला होता है। मैं उसे हुजूर के सामने पेश करता हूँ।
अरदली - विशेषज्ञ हाजिर हो।
विशेषज्ञ - सरकार, मैं विशेषज्ञ हूँ और भूमि तथा वातावरण की हलचल का विशेष अध्ययन करता हूँ। मैंने परीक्षण द्वारा पता लगाया है कि जमीन के नीचे एक भयंकर प्रवाह घूम रहा है। मुझे यह भी मालूम हुआ कि आज वह बिजली हमारे शहर के नीचे से निकलेगी। आपको मालूम नहीं हो रहा है, पर मैं जानता हूँ कि इस वक्त हमारे नीचे भयंकर बिजली प्रवाहित हो रही है। यदि हमारे बिजली के खम्भे जमीन में गड़े रहते तो वह बिजली खम्भों द्वारा ऊपर आती और उसकी टक्कर अपने पावरहाउस की बिजली से होती। तब भयंकर विस्फोट होता। शहर पर हजारों बिजलियाँ एक साथ गिरतीं। तब न एक प्राणी जीवित बचता, न एक इमारत खड़ी रहती। मैंने तुरन्त सेक्रेटरी साहब को यह बात बतायी और उन्होंने ठीक समय पर उचित कदम उठाकर शहर को बचा लिया।
समवेत स्‍वर - बाप रे, चलो अच्‍छा हुआ। जान बची।
राजा - तो भाइयो, अब आप ही बताइए, ऐसी स्थिति में क्‍या किया जाए।
समवेत स्‍वर - कोई बात नहीं महाराज। प्रजा आपके साथ है। प्रजा आपके साथ है।
(भीड़ धीरे धीरे प्रस्‍थान कर रही होती है तभी...)
विशेषज्ञ - तो महाराज देखी आपने मेरी विशेषज्ञता। आखिर आपके राज्‍य का विशेषज्ञ हूं। आपका खाता हूं तो आपका गाना ही पड़ेगा।
राजा - शाबाश। बहुत अच्‍छा किया। तुम्‍हे जरूर इनाम मिलेगा।
 
(भीड़ राजा व विशेषज्ञ की बात सुनकर चौंक जाती है। लोगों के चेहरे के भाव बदल जाते हैं। सीन फ्रीज हो जाता है।)
 
सूत्रधार - दोस्‍तों, देखा आपने। यह सत्‍ता का असली चेहरा है। लोग अब राजा के हुक्‍म और मुनाफाखोरों को भूल गए हैं। खबर है कि मुनाफाखोरों ने इस एवज में बड़ी रकम चुकाई है। सेक्रेटरी की पत्नी के नाम- २ लाख रुपये, श्रीमती बिजली इंजीनियर के नाम १ लाख, श्रीमती इंजीनियर के नाम १ लाख, श्रीमती विशेषज्ञ के नाम २५ हजार, श्रीमती ओवरसियर के नाम ५ हजार रुपये बैंक खातों में जमा करा दिए गए हैं।
 
हां, ‘मुनाफाखोर संघ’  ने ‘धर्मादा’ खाते में भी दान पुण्‍य किया है। कोढ़ियों की सहायता के लिये २ लाख, विधवाश्रम के लिए १ लाख, क्षय रोग अस्पताल के लिए १ लाख, पागलखाने के लिए २५ हजार, अनाथालय के लिए ५ हजार और तवायफों के कल्‍याण के लिए दस हजार रुपये दान स्‍वरूप दिया है।
 
जाइए, अब आप भी विश्राम कीजिए। एक मिनट- लेकिन सोचिएगा, यह व्‍यवस्‍था कैसे बदलेगी।
 
गीत -
जितने हरामखोर थे कुर्बो जवार में
प्रधान बन के आ गए अगली कतार में।
काजू भूनी प्‍लेट में विस्‍की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में।।
 
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समाप्‍त
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बुधवार, 5 जून 2013

महिला शौचालय के लिए तरसे बापू के गांव

पंचायतीराज और महिलाएं- 4
समुचित विकास के लिए जेंडर बजट बनाने वाले बिहार में लैंगिक असमानता चरम पर है। शहर से गांव तक स्‍थिति बेहद खराब है। अगर सियासी भागीदारी की बात छोड़ दें तो महिलाओं को पुरुषों के बराबर कई क्षेत्रों में संसाधन और अवसर नहीं मिल रहे हैं। यह हालत तब है जबकि पंचायतों में 50 फीसद, पुलिस में 35 फीसद और सहकारी संस्‍थाओं में 50 फीसद महिला आरक्षण का राज्‍य सरकार ने प्रावधान कर रखा है। उदाहरण के तौर पर पंचायतीराज व्‍यवस्‍था से जुड़ी महिलाओं की एक गंभीर समस्‍या पर नजर दौड़ाई जाए तो लैंगिक असमानता की भयावह तस्‍वीर दिखती है। पंचायतों, नगर पंचायतों, प्रखंड कार्यालयों और जिला मुख्‍यालयों में 'महिला शौचालय' जैसी बुनियादी सुविधा भी उपलब्‍ध नहीं है। महिलाओं को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।
क्‍या है गांवों की तस्‍वीर
आइए, आपको मुजफ्फरपुर जिले की कुछ तस्‍वीरें दिखाते हैं। ऐसी तस्‍वीरें सूबे के तमाम जिलों में दिख जाएंगी। गायघाट प्रखंड की बलौरनिधि पंचायत की मुखिया हैं पुनीता देवी। इनसे पहले मुखिया थीं शोभा देवी। इस पंचायत पर महिलाओं का कब्‍जा रहा है। लेकिन पंचायत भवन परिसर तथा उसके आसपास कोई महिला शौचालय नहीं है। इसी प्रखंड की लदौर पंचायत के मुखिया हैं दीपक कुमार झा। उनकी पंचायत में चार महिला वार्ड सदस्‍य, एक महिला विकास मित्र और एक महिला पंचायत समिति सदस्‍य हैं। लेकिन इन महिला जनप्रतिनिधियों के लिए यहां भी महिला शौचालय नदारद है। इतना ही नहीं गायघाट प्रखंड मुख्‍यालय का भी यही हाल है। साहेबगंज प्रखंड की विशुनपुर कल्‍याण पंचायत की मुखिया रंभा देवी, अहियापुर पंचायत की मुखिया गायत्री देवी, बासदेवपुर सराय की मुखिया मीना देवी और राजेपुर की मुखिया कबूतरी देवी कहती हैं कि प्रखंड क्षेत्र में 21 ग्राम पंचायतें हैं। किसी भी पंचायत में महिला शौचालय की व्‍यवस्‍था नहीं है। इस प्रखंड में एक नगर पंचायत भी है। यहां की मुख्‍य पार्षद किरण देवी हैं। बताती हैं कि यहां पुरुषों के लिए दो शौचालय बनाए गए हैं,  लेकिन महिलाओं के लिए एक भी नहीं। औराई प्रखंड की अतरार पंचायत की मुखिया अंजू देवी और घनश्‍यामपुर की मुखिया मंजू देवी कहती हैं कि पंचायतों की बात तो दूर प्रखंड मुख्‍यालय में भी महिला शौचालय की व्‍यवस्‍था नहीं है। जब जरूरत पड़ती है तो महिलाएं आसपास के घरों में या दूर झाड़ियों में चली जाती हैं। कुढ़नी प्रखंड की दरियापुर कफेन के मुखिया रामेश्‍वर महतो के अनुसार, पंचायत में छह महिला जनप्रतिनिधि हैं। चूंकि किसी पंचायत में महिलाओं के लिए अलग शौचालय की व्‍यवस्‍था नहीं है, इसलिए यहां भी नहीं है। प्रमुख संघ के नेता सह सकरा प्रखंड के प्रमुख श्‍याम कल्‍याण कहते हैं कि सार्वजनिक स्‍थानों पर महिला शौचालय का नहीं होना अमानवीय पहलू है। यह मानवाधिकार का उल्‍लंघन भी है। पंचायतों और प्रखंडों की बात तो दूर जिले के किसी भी सरकारी कार्यालयों में महिला शौचालय की व्‍यवस्‍था नहीं है। इस समस्‍या का निदान खुद पंचायतों और नगर पंचायतों को करना चाहिए। वैसे, प्रमुख संघ भी इसे आंदोलन का मुद्दा बनाएगा।

निर्मल ग्राम का भी बुरा हाल
चौंकाने वाली बात यह है कि जिन पंचायतों को निर्मल ग्राम का पुरस्‍कार मिल चुका है, वहां भी महिला शौचालय नहीं बने हैं। कांटी व मड़वन प्रखंड की महिलाओं ने पिछले साल प्रखंड विकास पदाधिकारियों का घेराव किया था। उनका आरोप था कि प्रखंड क्षेत्र में कहीं भी महिला शौचालय नहीं है। जबकि प्रखंड विकास पदाधिकारियों का कहना था कि शौचालय बनने के बाद ही पंचायतों को निर्मल ग्राम का पुरस्‍कार मिला है। खैर, महिलाओं के आंदोलन के बाद मुखियों पर कार्रवाई भी हुई। स्‍वयंसेवी संस्‍था निर्देश की परियोजना पदाधिकारी रंभा सिंह कहती हैं कि महिला शौचालय निर्माण के प्रति प्रशासन और पंचायत प्रतिनिधियों का गंभीर नहीं होना इस बात का सुबूत है कि लैंगिक असमानता चरम पर है। इस समस्‍या को जड़ से खत्‍म करना होगा, तभी समाज का समुचित विकास हो पाएगा।
पंचायतों को करनी होगी पहल
दरअसल, स्वस्थ समाज के लिए लैंगिक समानता जरूरी है। स्त्री और पुरुष के देहगत विभेद से ऊपर उठने के बाद ही स्वस्थ-समतामूलक समाज का निर्माण किया जा सकता है। यह बात ध्यान रखनी होगी कि लैंगिक समानता तथा संवेदनशीलता की गारंटी केवल पंचायतीराज व्‍यवस्‍था में महिलाओं की भागीदारी और उनकी संख्या से नहीं मिल सकती। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि पंचायतीराज व्‍यवस्‍था लैंगिक संवेदनशीलता तथा उसकी नीतियों और संरचना के महत्व को कितना समझती हैं। महिला समाख्‍या सोसाइटी की जिला समन्‍वयक पूनम कुमारी कहती हैं कि पंचायतों को रणनीति बनाकर अपने यहां महिला शौचालय का निर्माण कराना चाहिए। खासकर जहां महिला मुखिया हैं उन्‍हें उदाहरण पेश करने की जरूरत है। इससे अन्‍य पंचायतें भी प्रेरणा लेंगी और हालात बदलेंगे। जिला परिषद की पूर्व अध्‍यक्ष किरण देवी कहती हैं, '' बिहार में लैंगिक असमानता एक गंभीर समस्‍या है। हर स्‍तर पर महिलाएं सुविधा और अवसर से वंचित हैं। राज्‍य सरकार समस्‍या के निदान के लिए ठोस कार्ययोजना बनाए। उसे पंचायतों की मदद से जमीन पर उतारे। साथ ही, प्रबुद्धजन इस असमानता को खत्‍म करने के लिए आगे आएं। महिला शौचालय सिर्फ महिला जनप्रतिनिधियों की ही नहीं, बल्‍िक  सभी महिलाओं की जरूरत है। यही नहीं ऐसी कई बुनियादी जरूरतें हैं जिनके लिए महिलाएं तरस रही हैं।
रिपोर्ट - एम. अखलाक

सोमवार, 3 जून 2013

एजेंडे से गायब ‘महिलाओं की सेहत’


पंचायतीराज और महिलाएं - 3
'‘यदि गांव की कोई महिला माहवारी से है तो उसे चार-पांच दिन एक अलग कमरे में रहना पड़ेगा। उन दिनों चाहकर भी स्नान नहीं कर सकती है। खाना नहीं बना सकती। यदि बनाएगी तो कोई खाएगा नहीं। परिवार में यदि कोई शुभ कार्य प्रस्तावित है और उसी बीच माहवारी की संभावना बन जाए तो दवा खाकर माहवारी को टालना उसकी मजबूरी है। चाहे सेहत भाड़ में जाए। ऐसा नहीं करने पर वह किसी भी शुभ कार्य में शामिल नहीं हो सकती। इसी तरह माहवारी के दिनों में गांव की लड़कियां स्कूल नहीं जाती हैं।’'
यह कड़वी सच्चाई है तेजी से बदल रहे बिहार के गांवों की। हर गांव में ऐसे मामले मिल जाएंगे। सुदूर गांवों की तो स्थिति और भी भयावह है। दरअसल, ग्रामीण महिलाओं की सेहत का सवाल अब भी पंचायतीराज व्यवस्था का अहम एजेंडा नहीं बन पाया है। तमाम पंचायतें सिर्फ सड़क, पानी, भवन निर्माण, मिड-डे मील, आंगनबाड़ी, इंदिरा आवास, बीपीएल सूची, पेंशन वितरण आदि योजनाओं तक सिमट कर रह गई हैं। जिन पंचायतों का नेतृत्व खुद महिलाएं कर रही हैं, वहां भी यह सवाल एजेंडे से गायब है। 
गैर सरकारी संगठन ‘प्लान इंडिया’ और कुछ वेबसाइटों की रिपोर्ट पर यकीन करें तो देश में 70 फीसद ग्रामीण महिलाएं सैनेटरी नैपकिन की पहुंच से दूर हैं। इसमें बिहार की ग्रामीण महिलाएं भी शामिल हैं। गांव की महिलाओं और स्त्री रोग विशेषज्ञों के बीच देशभर में कराए गए सर्वे में पाया गया है कि माहवारी के दौरान देखरेख नहीं होने से ग्रामीण क्षेत्रें की किशोरियां कम से कम 50 दिन स्कूल नहीं जा पाती हैं। देश में माहवारी से गुजरने वाली 35-5 करोड़ महिलाओं में केवल 12 फीसदी महिलाएं ही सैनिटरी नैपकिनों का इस्तेमाल करती हैं।
मुजफ्फरपुर जिले की स्त्री रोग विशेषज्ञ डाक्टर ज्योति कहती हैं कि जागरुकता के अभाव में आज भी ग्रामीण महिलाएं माहवारी के समय गंदे कपड़े, मिट्टी और राऽ आदि इस्तेमाल करती हैं। कई महिलाएं तो एक ही कपड़े को बार-बार धोकर यूज करती हैं। इससे हमेशा संक्रमण का ऽतरा बना रहता है। यह उनकी प्रोडक्टिविटी पर भी बुरा असर डालता है। उन्हें यूट्रस संबंधी कई बीमारियों का शिकार बना देता है। हर दिन गंभीर बीमारियों से परेशान महिलाएं इलाज के लिए आती रहती हैं। जो महिलाएं दवाओं का सेवन कर माहवारी को रोकती हैं, पहले तो उनका मासिक चक्र अनियमित हो जाता है। उसके बाद शारीरिक समस्याएं बढ़ जाती हैं।
महिला समाख्या सोसाइटी की जिला कार्यक्रम समन्वयक पूनम कुमारी कहती हैं कि गांवों में महिलाओं की बड़ी आबादी सैनेटरी नैपकिन खरीदने में अक्षम है। यही वजह है कि किसी भी चीज से काम चला लेती हैं। इसका बुरा असर उनकी सेहत पर पड़ रहा है।
सरकार की योजना का लाभ उठाएं 

केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ग्रामीण महिलाओं को इस तरह की परेशानी से उबारने के लिए ‘वन रुपीज सेनेटरी नैपकिन’ नामक योजना चला रही है। इसके तहत ग्रामीण महिलाएं केवल एक रुपये में नैपकिन ऽरीद सकती हैं। इसके लिए उन्हें गांव के सरकारी अस्पतालों में जाने की भी जरूरत नहीं है। आशा कार्यकर्ता ही घूमघूम की एक रुपये कमीशन पर मुहैया कराती हैं। सरकार उन्हें छह सैनेटरी पैड का पैकेट पांच रुपये में उपलब्ध कराती है, जिसे वह छह रुपये में बेचती हैं। यह योजना बीस से अधिक राज्यों के जिलों में चल रही है। इसमें मुजफ्फरपुर जिला भी शामिल हैं।
क्या कर सकती हैं पंचायतें

  • माहवारी से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने के लिए गांवों में जागरूकता अभियान चला सकती है।
  • जागरूकता अभियान में स्वयं सहायता समूह, महिला संगठन, महिला जनप्रतिनिधि अहम रोल अदा कर सकते हैं।
  • आशा कार्यकर्ता नैपकिन बेचने में रूचि दिखा रही हैं या नहीं, इसकी पड़ताल वार्ड सदस्य करें। पंचायतों को इसकी रिपोर्ट दें।
  • आशा कार्यकर्ताओं के जरिए महिलाओं को माहवारी रोकने वाली दवा के कुप्रभाव की जानकारी दी जाए।
  • ग्रामीण क्षेत्र के स्कूल की शिक्षिकाओं की मदद से किशोरियों को जागरूक करने की रणनीति बनाई जाए।
  • ग्रामीण क्षेत्र की छोटी-बड़ी दुकानों पर सेनेटरी नैपकिन सहज तरीके से उपलब्ध कराया जाए।
  • इस पूरे अभियान को पंचायत संचालित करे, क्योंकि इस समस्या से सर्वाधिक गांव की महिलाएं प्रभावित हैं।
रिपोर्ट - एम. अखलाक

दो कदम तो चले हैं, अभी सफर बाकी है

पंचायतीराज और महिलाएं - 2
 
वैश्वीकरण के साथ कदमताल करता बिहार, रफ्ता रफ्ता बदलता बिहार, अब पंचायतीराज व्यवस्था के चौथे चरण की ओर कदम बढ़ा चुका है। तीन साल बाद यानी वर्ष 2016 में चुनाव होंगे। पिछले तीन चुनावों के बाद ग्राम सरकारों की तस्वीरें हमारे सामने हैं। तस्वीरें कई सवाल खड़े कर रही हैं। कई सुझाव भी दे रही हैं। तस्वीरें आईना भी दिखा रही हैं। समीक्षा करने के लिए प्रेरित भी कर रही हैं। समीक्षा से ही हालात और बेहतर होगा।
इसमें कोई दो राय नहीं कि बिहार के सभी जिलों में पंचायतीराज व्यवस्था अपने तीन पंचवर्षीय सफर के दौरान ग्रामीण विकास योजनाओं में लूट-भ्रष्टाचार और अक्षम महिला नेतृत्वों के कारण सवालों के घेरे में रहा है। मुखिया, पंचायत समिति सदस्य, पंच, सरपंच और जिला परिषद सदस्यों पर तरह-तरह के रिश्वतखोरी के आरोप लगते रहे हैं। इंदिरा आवास हो, सोलर लाइट हो या शिक्षक नियोजन तमाम योजनाएं जनप्रतिनिधियों के लिए दुधारू गाय साबित होती रही हैं। यही नहीं महिला जनप्रतिनिधियों की आड़ में पुरूष सत्ता संभालते रहे हैं। बैठकों में महिला जनप्रतिनिधियों के पतियों का जाना आम बात है। गांवों में तो मुखिया के पति संक्षेप में एमपी कहलाने लगे हैं।
लेकिन, इन तमाम बुराइयों और खामियों के बावजूद एक सकारात्मक पक्ष भी है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। कई ऐसी महिला जनप्रतिनिधि भी हैं जो विषम परिस्थितियों में बेहतर काम कर रही हैं। सरकारी बैठकों में खुद फैसले ले रही हैं। योजनाओं को समझ रही हैं, उसे जमीन पर सही तरीके से उतार रही हैं। गांवों में अंधविश्वास और रूढ़ियों के खिलाफ जंग लड़ रही हैं। वह घर के पुरूषों की छायाप्रति नहीं हैं। समाज के सामने उदाहरण पेश कर प्रेरणास्रोत बन रही हैं। ऐसी महिलाएं बिहार के सभी जिलों में मिल जाएंगी। आए दिन अखबारों में खबर की शक्ल में दिखाई भी पड़ती हैं। मुजफ्फरपुर जिले के तीन उदाहरण गौर करने लायक हैं।
बंदरा प्रखंड की शिवराहां मझौलिया पंचायत की चंद्रकला देवी अनुसूचित जाति से आती हैं। नेतृत्व क्षमता और जमीनीस्तर पर काम करने के कारण तीन बार मुखिया चुनी जा चुकी हैं। हर कोई उनके नेतृत्व क्षमता का कायल है। सरकारी कामकाज में पति का कोई हस्तक्षेप नहीं है। योजनाओं की जानकारी जुबान पर रहती है। पूछिए तो फटाफट बता देंगी। मुखिया बनने से पहले गांव में गरीब बच्चियों को शिक्षा दान करती थीं। आज पंचायतीराज व्यवस्था की बागडोर संभालने के साथ-साथ कई जनसंगठनों से जुड़कर महिला हिंसा रोकने, सबको शिक्षित करने, स्वास्थ्य जागरूकता, आर्थिक स्वावलंबन आदि के लिए भी काम कर रही हैं। चंद्रकला एक कुशल नेतृत्व की जिंदा मिसाल हैं।
शिवराहां मझौलिया पंचायत की एक और रोचक घटना महिलाओं के जागरूक होने की कहानी बयां कर रही है। कृष्णा देवी और बेबी देवी में गहरी दोस्ती थी। कृष्णा पंचायत समिति सदस्य चुनी गईं। इसके बाद उनके बेटे ने दलाली शुरू कर दी। कृष्णा की नीयत भी बदलती गई। जब दोबारा चुनाव आया तो गांव की महिलाओं ने बैठकर कृष्णा देवी की आलोचना की। इतना ही नहीं बेबी देवी को अपना उम्मीदवार बना डाला। अंततः बेबी देवी चुनाव जीतकर पंचायत समिति सदस्य बन गईं। बेबी देवी के कामकाज से लोग संतुष्ट हैं। वह इलाके में बेहतर काम कर रही हैं। यह वाक्या ग्रामीण महिलाओं में आ रही जागरूकता की ओर इशारा है।
तीसरा उदाहरण और भी दिलचस्प है। मुशहरी प्रखंड की रजवाड़ा पंचायत की सावित्री देवी बेहद गरीब परिवार से आती हैं। वह कहती हैं कि पंचायत चुनाव लड़ने की बात सोच भी नहीं सकती थी, लेकिन गांव-समाज के दबाव में आकर चुनाव मैदान में उतर गई। निर्विरोध पंच चुनी गई। जब पुनः चुनाव आया तो विरोध में एक और महिला खड़ी हो गई। मेरे मन में सवाल उठने लगा कि जब खुद लड़ना नहीं चाहती थी तो गांव वालों ने न सिर्फ चुनाव लड़ाया बल्कि निर्विरोध जीत का सेहरा भी बांधा दिया। आखिर क्या चूक हुई कि जब स्वयं चुनाव लड़ना चाहती हूं तो अन्य प्रत्याशी भी मैदान में आकर डट गए ? सावित्री ने तय किया कि क्षेत्र में किए गए काम के आधार वोट मांगेगी और सिर्फ एक दिन घूमकर चुनाव प्रचार करेगी। उसने ऐसा ही किया। और सावित्री पचास मतों से दोबारा चुनाव जीत गईं। सावित्री कहती हैं कि ईमानदारी से अगर काम करो तो जनता इनाम जरूर देती हैं।
ये उदाहरण इशारा करते हैं कि पंचायतीराज व्यवस्था के भीतर तेजी से बदलाव की प्रक्रिया जारी है। हताश और निराश होने की जरूरत नहीं है। 50 फीसद महिला आरक्षण बेमानी साबित नहीं होगा। तेजी से समाज बदलने के कारण महिलाओं के प्रति नजरिया भी बदल रहा है। अब घर से हर समुदाय की महिलाएं निकलने लगी हैं। जनता के दबाव और आलोचनाओं के कारण कई जगह सरकारी बैठकों में एमपी (मुखिया पति) की दाल नहीं गल रही है। हां, यदि पंचायती राज व्यवस्था जनता को प्रत्यक्ष शासन की ओर ले जाने वाला महत्वपूर्ण कदम है तो यह कदम तभी सार्थक होगा जब जनता अपने आसपास के विकास कार्यों में अपने ही गांव जवार के प्रतिनिधियों द्वारा की जा रही प्रत्यक्ष बेईमानी को देखेगी और तत्क्षण उसका संगठित विरोध करेगी। जनता में इस प्रकार की चेतना के विकास से ही पंचायती राज व्यवस्था की जड़ें मजबूत होंगी।
 
 
''पिछले तीन पंचायत चुनावों का असर अब गांव-समाज में दिखने लगा है। खासकर गांव की महिलाओं की दुनिया तेजी से बदल रही है। 50 फीसद महिला आरक्षण की भूमिका भी अहम रही है। हां, भ्रष्टाचार के मामलों में भी महिला जनप्रतिनिधियों के नाम बहुत कम सामने आए हैं। यह अच्छी बात है।'' - रानी कुमारी, सरपंच, सरहंचिया, औराई
 
- रिपोर्ट - एम. अखलाक

गुरुवार, 30 मई 2013

ग्राम स्‍वराज की 'बेनजीर'



पंचायतीराज और महिलाएं - 1

इसे बिहार में पचास फीसद महिला आरक्षण का कमाल कहें या धीरे-धीरे मजबूत होती पंचायतीराज व्‍यवस्‍था का असर। सच्‍चाई यह है कि राजधानी पटना से 80 किलोमीटर दूर मुजफ्फरपुर जिले के गांवों की तस्‍वीर तेजी से बदल रही है। महिलाएं हर स्‍तर पर सशक्‍त हो रही हैं। नई इबारत गढ़ रही हैं। दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत बन रही हैं। कमजोर वर्ग की महिलाओं की तो पूछिए मत, 'बेनजीर' बनकर उभर रही है। इन महिलाओं ने अगर घर से बाहर कदम रखने का साहस जुटाया है तो इसके पीछे कहीं न कहीं पंचायतीराज व्‍यवस्‍था की अहम भूमिका है। अगर महिलाओं को आरक्षण नहीं मिलता, वह चुनाव लड़कर गांव की सत्‍ता नहीं संभालतीं, तो शायद अन्‍य महिलाएं भी जागरुक नहीं हो पातीं। पेश है तीन ऐसी गरीब ग्रामीण महिलाओं की कहानी, जिनसे हर कोई प्रेरणा लेने के लिए मजबूर हो जाएगा। - रिपोट : एम. अखलाक
पहली महिला जादूगरनी कंचन प्रिया

महज 19 वर्षीय कंचन प्रिया बिहार की पहली महिला जादूगरनी हैं। मुजफ्फरपुर जिले के सकरा प्रखंड स्‍थित सुस्‍ता मोहम्‍मदपुर गांव की रहने वाली इस दलित समुदाय की लड़की ने रिश्‍ते के भाई और पेशे से शिक्षक संजय कुमार चंचल से जादू की शिक्षा हासिल की। इसके बाद गांव की हमउम्र लड़कियों की मंडली बनाकर एक विशाल जादू टीम का गठन किया। गांवों में सीमित संसाधनों के बीच जादू शो करने लगी। गांव वालों को एक बेहतर मनोरंजन का माध्‍यम मिल गया। लेकिन शहरों तक पहुंच नहीं बना पा रही थी। वर्ष 2011 में गांव जवार जनसंगठन के संपर्क में आई। पहली प्रस्‍तुति खादी भंडार परिसर में आयोजित लोक जमघट नामक सांस्‍कृतिक कार्यक्रम में हुई। गांव जवार ने युद्धस्‍तर पर ब्रांडिंग की। उसके बाद शहर के सबसे बड़े आम्रपाली आडिटोरियम में एक महीने का जादू शो किया। गांव के लोगों से कर्ज लेकर। कंचन प्रिया वह तमाम जादू शो करती हैं जो बड़े बड़े जादूगर करते हैं। मसलन लड़की को हवा में उड़ा देना, आरी से दो हिस्‍सों में काट देना, लड़के को जानवर बना देना, तलवार को गले के आरपार कर देना, खाली हाथों से रुपये बरसाना, आंखों पर पट़्टी बांध कर शहर में बाइक चलाना आदि आदि। कंचन अपने दर्शकों से हर शो में कहती है कि यह कोई जादू टोना नहीं है, बल्‍िक हाथों की सफाई है। पहली बार शहर में शो करना था। घर वाले इजाजत नहीं दे रहे थे। परिजनों का कहना था कि अखबार में फोटो छपेगा, बदनामी होगी, शादी में दिक्‍कत आएगी। लेकिन गांव जवार ने परिजनों की काउंसलिंग की तो वे मान गए। गांवों में जहा संसाधनों की कमी के कारण बड़े जादूगर नहीं पहुंच पाते हैं, वहीं कंचन अपनी टीम के साथ लगातार गांवों में शो कर रही है।
राजकुमारी बन गई किसान चाची
खेती-किसानी सिर्फ मर्द ही नहीं औरतें भी कर सकती हैं, इस सच को साबित कर दिखाया है किसान चाची ने। जी हां, पूरा नाम है राजकुमारी देवी। मुजफ्फरपुर जिले के सरैया प्रखंड की माणिकपुर पंचायत के आनंदपुर गांव की रहने वाली किसान चाची की उम्र करीब 57 साल है। बचपन में अपने शिक्षक पिता के साथ खेत में जाती थीं तो बड़े भाई विरोध करते थे। फिर भी उन्हें पिता का साथ मिलता रहा और उस समय से ही कृषि में रुचि रखने लगीं। अब स्‍वयंसहायता समूह के माध्‍यम से महिलाओं को खेती-किसानी का प्रशिक्षण देती हैं। मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार सम्‍मानित कर चुके हैं। मीडिया के लिए सेलिब्रेटि बन चुकी हैं। 1974 में शादी हुई। 1989  में घर का बंटवारा हुआ। पति के हिस्से में तीन एकड़ जमीन आई। घर की हालत ठीक नहीं थी। राजकुमारी से  रहा नहीं गया। खेती में हाथ बंटाने लगीं। पति ने भी इसका विरोध किया। पति के घर से बाहर जाने के बाद खेतों में जाकर सब्जी उगाने लगीं। इसी बीच स्वयं सहायता समूह से भी जुड़ गईं। इतना ही नहीं साइकिल से गांव-गांव घूमकर महिलाओं को जोड़ने लगीं। गांव में साइकिल चलाती महिला को देखकर लोग तंज भी कसते, लेकिन राजकुमारी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा।  1996 में राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय पूसा के वैज्ञानिकों से संपर्क किया। उन्नत बीजों से पपीता, खीरा, कद्‌दू की खेती शुरू की। किसान चाची मैट्रिक पास हैं। एक दिन पता चला कि तंबाकू खाने से कैंसर होता है, उन्‍होंने पति को समझाया और हमेशा के लिए तंबाकू की खेती बंद करा दी। खुद जैविक खाद बनाती हैं और उपयोग भी करती हैं। आज उनकी माली हालत काफी अच्छी है। 2007 में कृषि विभाग की गेहूं की खेती पर किसान पाठशाला योजना में उन्हें माणिकपुर पंचायत के वीरपुर गांव में प्रशिक्षण देने का जिम्मा सौंपा गया था। इसी समय से लोग उन्हें किसान चाची कहकर संबोधित करने लगे।
ब्रांड बन गई हनी गर्ल
मुजफ्फरपुर जिले के बोचहा प्रखंड के पटियासी गांव में जन्मी अनीता बचपन में बकरी चराया करती थी। छोटे स्‍तर पर मधुमक्खी पालन का व्यवसाय शुरू कर इतिहास रच दिया। आज वह ब्रांड बन गई है। हर कोई उसे ‘हनी गर्ल’ के नाम से पुकारता है। उसकी सफलता की कहानी राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की चौथी कक्षा की पाठ्य पुस्तक में बच्चों को पढ़ाया जा रहा है। अपनी पढ़ाई का खर्च पूरा करने के लिए अनीता ने सबसे पहले बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। जब उच्च शिक्षा के लिए और अधिक पैसों की जरूरत पड़ी तो उसने मधुमक्खी पालन का व्यवसाय शुरू किया। अब पिता और भाई भी इस काम में हाथ बंटाते हैं। वर्ष 2002 में दो बक्से से मधुमक्खी पालन का कार्य शुरू किया था। आगे चलकर राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा से मधुमक्खी पालन का प्रशिक्षण लिया। विश्वविद्यालय ने उन्‍हें सर्वश्रेष्ठ पालक का पुरस्कार भी दिया। वर्ष 2006 में उसे जोरदार शोहरत मिली। यूनिसेफ ने उसकी कहानी पर रिपोर्ट जारी की। अनीता की प्रेरणा से आज गांव की करीब सात सौ महिलाएं आधुनिक तरीके से मधुमक्‍खी पालन करने लगी हैं। खैर, खुशी की बात यह है कि इसी साल 29 मई को अनीता शादी के बंधन में भी बंध चुकी हैं।

रविवार, 15 मई 2011

पानी पर नीतीश का 'जजिया कर'

विपक्ष विहीन बिहार में मिस्‍टर सुशासन उर्फ मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार की जनविरोधी नीतियां अब एक-एक कर जनता के सामने आने लगी हैं। पहले बिजली के बाजारीकरण का खेल शुरू हुआ। खेल खत्‍म होने से पहले ही पानी के बाजारीकरण का खेल भी शुरू हो गया है। पक्‍की खबर है कि सूबे में अब लोगों को अपनी जमीन से पीने के लिए पानी निकालने पर नीतीश सरकार को 'जजिया कर' (टैक्‍स) देना होगा। यही नहीं जो जितना अधिक पानी यूज करेगा उसे उतना ही अधिक टैक्‍स देना होगा। यानी पानी अब पराया गया है। जल पर जन का अधिकार नहीं होगा। वैसे मिस्‍टर सुशासन का तर्क है कि इससे भू-जल की बर्बादी नियंत्रित होगी। सूबे के सभी नगर निगमों और पंचायती राज संस्‍थाओं के पास इस बाबत तुगलकी फरमान भेज दिए गए हैं। कई जगह अखबार वालों ने 'गुड न्‍यूज' 'खास खबर' और जल संरक्षण की दिशा में राज्‍य सरकार द्वारा उठाए गए एक महत्‍वपूर्ण कदम जैसे भाव के साथ इस खबर को परोसा है। सूबे के किसी भी अखबार ने इसे जनविरोधी बताने की जुर्रत नहीं की है।
पहले ही बन गई थी रणनीति

करीब दो साल पहले बिहार विधानसभा में नीतीश कुमार की सरकार ने इस विधेयक को पास कराया था। तब किसी भी विपक्षी दल (राजद-लोजपा-वामदल) या विधायकों ने विरोध नहीं जताया था। अखबारों में भी छोटी-छोटी खबरें प्रकाशित हुई थीं। दरअसल, यह विधेयक कितना जनविरोधी है उस समय कोई ठीक से समझ ही नहीं पाया। और भला समझता भी कैसे ? उसके लिए दिमाग जो चाहिए। खैर, बिहार में अक्‍सर ऐसा होता आया है कि विधेयक पारित होते समय विधानमंडल में कोई प्रतिरोध नहीं होता। जब विधेयक लागू होने की बारी आती है तो जनता और पार्टियां सड़क पर उतरने लगती हैं। शायद इस बार भी ऐसा ही होता, लेकिन आसार नहीं दिख रहे हैं। क्‍योंकि इस बार तो विपक्ष सिरे से ही गायब है। आखिर मुंह खोलेगा कौन ? मीडिया से तो उम्‍मीद ही बेमानी है। वह तो मुख्‍यमंत्री के मुखपत्र की भूमिका निभा रहा है। मुझे अच्‍छी तरह याद है जब विधेयक पास हुआ था तो मैंने मुजफ्फरपुर में भाकपा माले के कुछ साथियों से विरोध जताने की अपील की थी, लेकिन उन्‍होंने भी गंभीरता से नहीं लिया।
किसने दिखाई नीतीश को राह

यों तो देश में पानी के बाजारीकरण का खेल वर्ष 1990-91 में नई अर्थव्‍यवस्‍था को अपनाने के साथ ही शुरू हो गई थी। लेकिन बिहार में यह नीतीश कुमार के शासनकाल से दिखाई दे रहा है। मुख्‍यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार कुमार वर्ल्‍ड बैंक के एजेंट की भूमिका निभाने लगे हैं। ठीक उसी तरह जैसे आंध्र प्रदेश में कभी चंद्रबाबू नायडू निभाया करते थे। उन्‍होंने भी अपने यहां भू-जल पर टैक्‍स लगा रखा है। ऐसे में भला नीतीश कुमार पीछे कैसे रह सकते थे। इन्‍होंने भी आंध्र प्रदेश का माडल बिहार में चुपके चुपके लांच कर दिया।
क्‍यों जरूरी है नीतीश का विरोध

नीतीश कुमार के विकास का माडल हर तरह से वर्ल्‍ड बैंक को मालदार बनाने वाला है। पूंजीपतियों व विदेशी कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाला है। आम आदमी को इससे कोई फायदा नहीं होगा। करीब 20-25 वर्षों के बाद बिहार का हर आदमी अप्रत्‍यक्ष रूप से वर्ल्‍ड बैंक को कर्जा चुकाते नजर आएगा। इतना ही नहीं सूबे के गरीब और गरीब हो जायेंगे। बुनियादी संसाधनों पर से उनका हक धीरे-धीरे छिन जाएगा। जल, जंगल और जमीन जैसी जन-जायदाद पर वर्ल्‍ड बैंक गिद्ध की तरह नजर गड़ाए हुए है। अगर नीतीश जैसे एजेंटों का विरोध नहीं हुआ तो देश गुलाम हो जाएगा।
- एम. अखलाक